इस दिन श्रवण नक्षत्र का होना बहुत बड़ा पुण्य माना गया है। इस पर्व पर व्रत करके भगवान वामन की स्वर्ण मूर्ति के समक्ष ५२ पेड़े तथा ५२ दक्षिणाएँ रखकर पूजन करना चाहिए। भगवान वामन को भोग लगाकर सकोरों में दही, चावल, चीनी, शरबत तथा दक्षिणा का ब्राह्मण को दान करके व्रत पारना चाहिए। इस पूजन पर ब्राह्मण तथा देवताओं के निमित्त दही, “सोटा, माला, गोमुखी, कमंडल, छाता, खड़ाऊँ तथा दक्षिणा सहित पुस्तक दान करने का भी विधान है।

कथा- एक बार सुरों तथा असुरों ने क्षीर सागर का मंथन किया। सुरों के हाथ अमृत लग गया और असुर हाथ मलते ही रह गए। खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे’। दैत्यों ने सुरों पर आक्रमण कर दिया और दैत्यराज बलि की हार हुई। हारे हुए बलि ने गुरु शुक्राचार्य की सेवा करके ऐसी अमोघ शक्ति पा ली कि उसने तीनों लोकों को जीत कर स्वर्गलोक भी हथिया लिया। बलि, स्वर्ग के अधिपति हो गए। शुक्राचार्य ने बलि को विधि-पूर्वक शतक्रतु बनाने के उद्देश्य से अश्वमेध यज्ञ कराना शुरू किया।

देवताओं को दुःखी देखकर देवमाता अदिति ने अपने पति महर्षि कश्यप की शरण में जाकर सारा हाल कहा। महर्षि की आज्ञा से अदिति ने विशेष अनुष्ठान किया, जिसके फलस्वरूप विष्णु भगवान वामन ब्रह्मचारी के रूप में दण्डकमण्डलु तथा मृगचर्म आदि सहित अवतरित होकर सौवें अश्वमेध के दिन बलि के यज्ञ-मंडप में गए। बलि बहुत बड़ा दानी था। भगवान वामन उसकी इसी कमजोरी का लाभ उठाना चाहते थे।

वामन ब्रह्मचारी के तेजस्वी व्यक्तित्व को यज्ञ मंडप में अतिथि की भाँति आया देख कर बलि की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। अपने को धन्य समझते हुए बलि ने वामन ब्रह्मचारी से आने का प्रयोजन पूछते हुए अपने योग्य सेवा की बात भी कह डाली।

वामन रूप विष्णु ने कहा, “मैं दीन हीन ब्राह्मण हूँ। मैं निष्काम भाव से जीवन जीता हूँ। मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम कुछ दान देने की इच्छा रखते हो तो मुझे मात्र तीन पग धरती दे दो मैं उसी में अपना विश्राम स्थल बना कर रह लूँगा। “

दैत्यराज बलि के गुरु शुक्राचार्य वामन भगवान को पहचान गए। उन्होंने बलि को उक्त दान देने से मना भी किया। पर ‘बलि दान देने से न टले और तीन पग धरती देने के लिए वचनबद्ध हो गए।

दान का संकल्प लेते वामनावतार ने विराट रूप धारण करके एक पग में तथा पाँव की में स्वर्ग तथा अंगूठे नाप लिया। अब पाँव से नापने के लिए के कुछ भी न था। तत्क्षण तीसरे लिए अपना शरीर प्रस्तुत कर दिया। वामन भगवान ने तीसरा पाँव उसकी पर रखकर पाताल दिया। तब कहीं लोग प्रसन्नता पूर्वक देवलोक निवास लगे। देवमाता अदिति की कोख से भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को वामनावतार होने से ही इस दिन वामन जयन्ती मनाई जाती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.