इस दिन शैव व वैष्णव मत के प्रवर्तक एक दूसरे से अपनी कट्टरता के कारण एक प्रकार की शत्रुता का अनुभव करते हैं।

इस व्रत का उल्लेख ‘मत्स्य पुराण’ में मिलता है। कहा जाता है कि एक बार महर्षि दुर्वासा शंकर के दर्शन करके लौट रहे थे। मार्ग में उनकी भेंट विष्णु जी से हो गई। महर्षि ने शंकर द्वारा दी गई विल्व पत्र की माला उन्हें दे दी। विष्णु ने माला अपने वाहन गरुड़ के गले में डाल दी। महर्षि ने क्रोधित होकर विष्णु को पथभ्रष्ट होने का शाप दे दिया। भगवान पथभ्रष्ट होकर जंगल में भटकने लगे। तपस्या में लीन शंकर ने विष्णु का दुःख जान लिया। वे दुःखी मन से विष्णु के पास गये और उन्हें शाप से मुक्त कर दिया।

इससे पता लगता है कि शिव व विष्णु में कोई बैर नहीं है। ‘रामचरितमानस’ में भी एक स्थान पर राम कहते हैं जो मेरा भक्त शिव निन्दक है वह मेरा शत्रु है।

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