भक्त प्रह्लाद की मान-मर्यादा के लिए इस दिन भगवान ने नृसिंह के रूप में अवतार लिया था। इसीलिए यह दिन एक पर्व के रूप में मनाया जाता है।

व्रत-विधान – इस दिन प्रदेश व्यापी व्रत का विधान है। इस दिन पूर्व विद्या में वणिज, सिद्ध, स्वाति तथा शनि का होना अति उत्तम माना गया है। इसे प्रत्येक नर-नारी कर सकता व्रत करने वालों को दोपहरी में वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके स्नान करने का विशेष विधान है। गोबर से चौका डालकर ताम्र-कलश में जल भर कर मंडप में रखो। नृसिंह भगवान की स्वर्ण मूर्ति को गंगाजल से स्नान करवा कर मंडप में स्थापित करके विधिपूर्वक पूजन करो। इस अवसर पर भूदान, गोदान, तिलदान, स्वर्णदान तथा वस्त्रों से सुसज्जित शय्या का दान ब्राह्मणों को देना अभीष्ट होता है। इस विधान से दान देकर सूर्यास्त के समय मंदिर में जाकर आरती करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस विधि से व्रत करके उसका पारण करने वाला व्यक्ति लौकिक दुःखों से मुक्त हो जाता है।

कथा – राजा कश्यप की पत्नी दिति के दो पुत्र जन्मे (१) हिरण्याक्ष तथा (२) हिरण्यकशिपु । हिरण्याक्ष अपने समय का बड़ा पराक्रमी तथा क्रूर राजा था। वाराह भगवान ने उसे मौत से घाट उतारा था। इसी का बदला लेने के भाव से हिरण्यकशिपु ने भगवान शंकर तथा विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। तप-सिद्धि पर हिरण्यकशिपु ने वर गांगा- ‘न मैं अन्दर मरूँ न बाहर, न दिन में मरूं न रात में न भूमि में मरूं न आसमान में, न जल में न अस्त्र से मरूं न शस्त्र से। न मनुष्य के हाथों से मरूं न पशु से। ‘ भगवान तथास्तु कह अन्तर्धान हो गए।

इस प्रकार अजेय वरदान पाकर हिरण्यकशिपु ने इन्द्रादि लोक पालों का जीना हराम कर दिया। प्रजा पर अनेक प्रकार के अत्याचार ढाने लगा। लोग तंग आ गए। भगवान स्वयं भी उसके इन अत्याचारों को सहन न कर सके। आखिर उन्होंने उसके काल का विधान किया।

कुछ समय के पश्चात् हिरण्यकशिपु की पत्नी कायुध के गर्भ से ‘प्रह्लाद’ ने जन्म लिया। प्रह्लाद भगवान का अनन्य भक्त था। उसका पिता भगवान से पूर्णतः विमुख रहता था इसलिए वह प्रह्लाद को भी भगवद्-भजन से रोकता था। पर भक्त प्रह्लाद इतना हठी था कि पिता की इस बात की हमेशा अवज्ञा कर देता। हिरण्यकशिपु ने उसे मरवाने के अनेक उपाय किए पर सफल न हो सका ।

वैशाख शुक्ला चर्तुदशी का दिन था। सूर्यास्त का समय था। न रात थी न दिन। प्रह्लाद अपने भगवद्-भजन में लीन था। हिरण्यकशिपु तलवार निकाल कर उस पर झपट कर बोला, “देखता हूँ अब तुझे कौन बचाता है। मेरे परम शत्रु का भक्त होकर तू मेरी छाती पर मूँग नहीं दल सकता। बता तेरा इष्ट अब कहाँ है? बुला उसे “

प्रह्लाद ने बड़े निर्भीक स्वर में कहा, “पिताजी ! भगवान तो सर्वत्र हैं। वे मुझमें भी हैं, आप में भी। आपकी तलवार में भी हैं और इस खंभे में भी।

क्रोधी हिरण्यकशिपु ने खंभे पर तलवार का प्रहार किया। खंभा टूट गया। उसमें से भयंकर शब्द करके भगवान नृसिंह प्रकट हुए। उनका आधा शरीर पुरुष का था और आधा सिंह का। नृसिंह प्रह्लाद का मान रखने के लिए हिरण्यकशिपु को उठा कर अपने घुटनों पर रखा और देहलीज पर पहुँच कर उसका पेट तेज नाखूनों के प्रहार से फाड़ कर प्राणान्त कर दिया। ऐसा विचित्र रूप धारण कर भगवान ने अपने दिए हुए वरदान की मर्यादा भी रख ली और दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध करके

अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद की मान-प्रतिष्ठा भी रख ली। ऐसे विचित्र भगवान का लोक मंगल के लिए स्मरण करके ही इस दिन व्रत करने का माहात्म्य है। भगवद् भक्ति में बहुत बड़ी शक्ति है। तुलसी ने ठीक ही तो लिखा है

‘प्रेम बड़ो प्रह्लाद को जिन पाहन ते परमेसुर काढ़े । ‘

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