हम 9 दिनों के लिए नवरात्रि क्यों मनाते हैं? नवरात्रि का इतिहास क्या है? navratri kab aur kyo manayi jati hai

दोस्तों, आज आपके लिए एक नई जानकारी। navratri kab aur kyo manayi jati hai? अक्सर जब भी नवरात्रि आती है तो लोग गूगल पर यह जरूर सर्च करते हैं कि हम 9 दिनों के लिए नवरात्रि क्यों मनाते हैं? नवरात्रि का इतिहास क्या है? कुछ लोग यह भी जानना चाहते हैं कि नवरात्रि का व्रत कैसे करें? नवरात्रि के नौ दिनों का क्या महत्व है? तो इन सारे सवालों का जवाब आज आपको इस आर्टिकल में मिल जाएगा। तो फिर देर किस बात की चलिए शुरू करते हैं। जानकारी अच्छी लगे तो शेयर दबाके कर दीजिएगा। लव यू रहेगा इसके लिए…

नवरात्रि कब और क्यों मनाई जाती है | navratri kab aur kyo manayi jati hai

नवरात्रि एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है जो देवी दुर्गा को समर्पित है। यह त्यौहार 9 दिनों तक चलता है और पूरे भारत में जोश और उत्साह के साथ मनाया जाता है। नवरात्रि दो शब्दों से बना है, “नव” का अर्थ है 9 और “रात्रि” का अर्थ है रात। नवरात्रि का त्योहार हर साल दो बार मनाया जाता है, और “शारदीय नवरात्रि” के दसवें दिन को दशहरा या विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।

यदि पक्ष के पन्द्रह दिनों के हिसाब से गणना करें तो वर्ष में 360 दिन होते हैं। इनमें चालीस नवरात्र होते हैं। इनमें दो नवरात्रों को प्रमुखता दी जाती है। चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से आरम्भ होने वाले नवरात्र ‘वासन्तिक’ तथा अश्विन शुक्ला प्रतिपदा से आरम्भ होने वालों को ‘शारदीय’ कहते हैं। इन दोनों में समान विधि से शक्ति की उपासना की जाती है। इन दिनों महामाया दुर्गा तथा कन्या पूजन का महात्म्य है। नवरात्र पूजन प्रतिपदा से दशमी पर्यन्त किया जाता है। ब्राह्मण सात्विक तथा शूद्र तामसिक पूजन करते हैं।

नवरात्रि में कैसे पूजा करें

प्रतिपदा के दिन घट की स्थापना करके तैलाभ्यंगस्नान तथा नवरात्रि व्रत का संकल्प करके गणपति तथा मातृक-पूजन करके ऋत्विक वरण की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। फिर पृथ्वी का पूजन करके घड़े में आम के हरे पत्ते, दूर्वा पंचामृत, पंचगव्य डालकर उसके मुंह में सूत्र बांधना चाहिए।

घट के पास गेहूँ अथवा जौ का पात्र रखकर वरुण-पूजन करके भगवती का आह्वान करना चाहिए। विधिपूर्वक भगवती का पूजन तथा दुर्गा सप्तशती का पाठ करके कुमारी पूजन का भी महात्म्य है। कुमारियों की आयु १ वर्ष से १० वर्ष पर्यन्त होनी चाहिए। देवी महात्म्य तथा दुर्गा सप्तशती के पाठ का क्रम दशमी तक करना चाहिए।

घर के पास प्रतिपदा के दिन नौ धान्य बोने का भी विधान है। अंत में इन नव-धान्यों की प्रसादी सिर पर चढ़ानी चाहिए। पंचमी के दिन उद्यंग ललिता व्रत भी करना चाहिए। अष्टमी तथा नवमी महातिथि मानी जाती है। नव दुर्गा पाठ के उपरान्त हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

नवरात्रि का महत्व क्या है

नवरात्रि मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्टूबर के आसपास पड़ती है। यह अवधि क्रमशः गर्मी और सर्दी की शुरुआत का प्रतीक है, जहां जलवायु के साथ-साथ सौर प्रभाव में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं।

इसलिए, इन्हें पृथ्वी को समृद्धि और खुशी के साथ आशीर्वाद देने के लिए पवित्र देवी दुर्गा की पूजा के लिए चुना गया है। 9 दिनों के पहले 3 दिन देवी दुर्गा को समर्पित हैं, जो शक्तिशाली सर्वव्यापी शक्ति हैं जो हमें हमारी सभी अशुद्धियों से शुद्ध करती हैं।

तीसरे से छठे दिन, धन की देवी, लक्ष्मी की पूजा अपने सभी भक्तों को धन और समृद्धि के साथ करने के लिए की जाती है। अंतिम तीन दिनों में विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। उनका आशीर्वाद लेने के लिए देवी देवी के तीनों पहलुओं की पूजा की जाती है।

नवरात्रि के 9 दिनों के अनुष्ठान के बारे में

भारत के विभिन्न हिस्सों में, समारोह और अनुष्ठान बहुत भिन्न होते हैं। बंगालियों और गुजरातियों के लिए नवरात्रि का विशेष महत्व है। डांडिया और गरबा का प्रदर्शन गुजरात और महाराष्ट्र राज्य में सभी को मंत्रमुग्ध कर देता है। नवरात्र के पहले दिन किसान नई फसल के बीज बोते हैं। बहुत से लोग नौ दिनों के पहले दिन जौ के बीज मिट्टी में लगाते हैं। इसके अंकुरों को देवी दुर्गा का आशीर्वाद माना जाता है।

कई समुदायों में इन 9 दिनों में व्रत रखे जाते हैं। लोग खुद को पूरी तरह से देवी दुर्गा की पूजा के लिए समर्पित करते हैं, आध्यात्मिक भजन गाते हैं, पवित्र भोजन करते हैं और देवी को फूल और मिठाई चढ़ाते हैं। देवी दुर्गा, देवी सरस्वती, देवी काली, भगवान गणेश और भगवान कार्तिकेय की विस्तृत सजावट और सुंदर मूर्तियों के साथ दुर्गा पंडाल स्थापित किए गए हैं। लोग अपनी भक्ति की पेशकश करने और संगीत और लोक नृत्य समारोह जैसी दिलचस्प गतिविधियों में शामिल होने के लिए ‘पंडालों’ में जाते हैं।

नवरात्रि पर कन्यापूजन कैसे करें

नौवें दिन, त्योहार ‘कन्या पूजा’ के साथ समाप्त होता है। इस अनुष्ठान में, देवी दुर्गा के रूप में तैयार छोटी लड़कियों की पूजा की जाती है।

उनके पैर धोए जाते हैं, उन्हें नए कपड़े और गहने जैसे उपहार दिए जाते हैं और उनके लिए एक विशेष दावत बनाई जाती है। उन्हें देवी दुर्गा का अवतार माना जाता है, जिन्हें घर के सदस्यों पर देवी का आशीर्वाद पाकर प्रसन्न होना चाहिए।

नवरात्रि के अंतिम दिन क्या होता है

दसवें दिन, सत्य और अच्छाई की जीत का प्रतीक राक्षस राजा रावण के पुतले जलाए जाते हैं। ‘दुर्गा सप्तशती’ में ‘दुर्गा-महात्म्य’ के संदर्भ में लिखा है कि शुम्भ निशुम्भ तथा महिषासुर आदि तामसिक असुरों की वृद्धि होने से देव-समाज में व्याकुलता फैलने लगी। इससे छुटकारा पाने के लिए सब देवताओं ने चित्शक्ति महामाया दुर्गा की उपासना की।

देवी ने प्रसन्न होकर चैत्र तथा आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से दशमीपर्यन्त देवी पूजन तथा व्रत का विधान बताया। उसी दिन से ‘देवी-नवरात्र’ का उत्सव मनाने की परम्परा का प्रचलन हुआ।

नवरात्रि की कथा क्या है

सुरथ नामक राजा अपना राजकाज मंत्रियों को सौंपकर सुख से रहता था। कालान्तर में शत्रु ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। मंत्री भी शत्रु से जा मिले। पराजित होकर राजा सुर तपस्वी के वेश में जंगल में रहने लगा। वहाँ एक दिन उसकी भेंट समाधि नामक वैश्य से हुई। वह भी राजा की तरह दुःखी होकर वन में रह रहा था। दोनों महर्षि मेधा के आश्रम में चले गये। महर्षि मेधा ने उनके वहाँ आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया- “यद्यपि हम लोग अपने स्वजनों से तिरस्कृत होकर यहाँ आये हैं तथापि उनके प्रति हमारा मोह छूटता नहीं है। इसका कारण हमें बताइये ।

महर्षि ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा- “मन शक्ति के अधीन है। आदिशक्ति भगवती के विद्या तथा अविद्या दो रूप हैं। विद्या ज्ञान स्वरूपा है तो अविद्या अज्ञान रूपा। अविद्या मोह की जननी है। भगवती को संसार का आदिकारण मानकर भक्ति करने वाले लोगों को भगवती जीवनमुक्त कर देती है।

तथा समाधि नामक वैश्य ने देवी शक्ति के बारे में विस्तार से जानने का आग्रह किया तो महर्षि मेधा ने बताया- “कल्पान्त में प्रलयकाल के समय क्षीरसागर में शेष शैय्या पर सो रहे भगवान विष्णु के कानों में मधु तथा कैटभ नामक दो राक्षस पैदा होकर नारायण की शक्ति से उत्पन्न कमल पर विराजित ब्रह्मा जी को मारने के लिए दौड़े। ब्रह्मा जी ने नारायण को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास कर रही योगनिद्रा की स्तुति की।

परिणामतः तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय तथा वक्षस्थल से निकलकर ब्रह्मा के सामने प्रस्तुत हुई। नारायण जी जाग गये। उन्होंने उन दैत्यों से पाँच हजार वर्ष पर्यन्त बाहु युद्ध किया। महामाया ने उन पराक्रमी दैत्यों को मोहपाश में डाल रखा था। वे विष्णु जी से बोले- “हम आपकी वीरता से संतुष्ट हैं। वरदान मांगिए । नारायण ने अपने हाथों उनके मरने का वर मांग ” कर उनका वध कर दिया।

इसके बाद महर्षि मेधा ने आदिशक्ति देवी के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा- “एक बार सुरों तथा असुरों में सौ साल तक युद्ध छिड़ा रहा। देवताओं के स्वामी इन्द्र थे तथा असुरों के महिषासुर महिषासुर देवताओं को पराजित करके स्वयं इन्द्र बन बैठा पराजित देवता भगवान शंकर तथा विष्णु जी के पास पहुँचे। उन्होंने आप-बीती कहकर महिषासुर के वध के उपाय की प्रार्थना की। भगवान शंकर तथा विष्णु को असुरों पर बड़ा क्रोध आया। वहाँ भगवान शंकर, विष्णु तथा देवताओं के शरीर से बड़ा भारी तेज प्रकट हुआ। दिशाएँ जाज्वल्यमान हो उठीं। एक होकर तेज ने नारी का रूप धारण कर लिया। देवताओं ने उसकी पूजा करके अपने आयुध तथा आभूषण उसे अर्पित कर दिये।

इस देवी ने जोर से अट्टहास किया, जिससे संसार में हलचल फैल गई। पृथ्वी डोलने लगी। पर्वत हिलने लगे। दैत्यों के सैन्यदल सुसज्जित होकर उठ खड़े हुए। महिषासुर दैत्य सेना सहित देवी के सिंहनाद की ओर शब्दभेदी बाण की तरह बढ़ा। अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर देने वाली देवी पर उसने आक्रमण कर दिया और देवी के हाथों मारा गया। यही देवी फिर शुम्भ तथा निशुम्भ का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से प्रकट हुई थीं।

शुम्भ तथा निशुम्भ के सेवकों ने परम मनोहर रूप धारण करने वाली भगवती को देखकर स्वामी से कहा- “महाराज हिमालय को प्रकाशित करने वाली दिव्य कान्ति युक्त इस देवी को ग्रहण कीजिए। कारण कि सारे रत्न आपके ही घर में शोभा पाते हैं। 1 स्त्री रत्नरूपी इस कल्याणमयी देवी का आपके अधिकार में होना जरूरी है। “

दैत्यराज शुम्भ ने भगवती के पास विवाह प्रस्ताव भेजा। देवी ने प्रस्ताव को ठुकरा कर आदेश दिया कि जो मुझसे युद्ध में जीत जाएगा मैं उसी का वरण करूंगी।

कुपित होकर शुम्भ ने धूम्रलोचन को भगवती को पकड़ लाने के उद्देश्य से भेजा। देवी ने अपनी हुँकार से उसे भस्म किया और देवी के वाहन सिंह ने शेष दैत्यों को मौत के घाट उतारा। इसके बाद इसी उद्देश्य से चण्ड-मुण्ड देवी के पास गये। दैत्य सेना को देखकर देवी विकरालरूप धारण करके उन पर टूट पड़ीं और सारे सैन्यदल को कुछ ही क्षणों में रौंद डाला। देवी ने वहीं चण्ड-मुण्ड को भी अपनी तलवार लेकर ‘हूँ’ शब्द के उच्चारण के साथ ही मौत के घाट उतार दिया।

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दैत्य-सेना तथा सैनिकों का विनाश सुनकर शुम्भ को बड़ा क्रोध आया। उसने शेष बची सम्पूर्ण दैत्य-सेना को कूच करने का आदेश दे दिया। सेना को आती देख देवी ने धनुष की टंकार से पृथ्वी तथा आकाश को गुंजा दिया। दैत्यों की सेना ने कालान्तर में चंडिका, सिंह तथा काली देवी को चारों ओर से घेर लिया। इसी बीच दैत्यों के संहार तथा सुरों की रक्षा हेतु समस्त देवताओं की शक्तियाँ उनके शरीर से निकल कर उन्हीं के रूप में आयुधों से सजकर दैत्यों से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गई। देव-शक्तियों के आवृत्त महादेव जी ने चण्डिका को आदेश दिया कि मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन दैत्यों का संहार करो।

ऐसा सुनते ही देवी के शरीर से भयानक तथा उग्र चण्डिका शक्ति पैदा हुई। अपराजिता देवी ने महादेव जी के द्वारा दैत्यों को संदेश भेजा कि यदि जीवित रहना चाहते हो तो पाताल लोक में लौट जाओ तथा इन्द्रादिक देवताओं को स्वर्ग और यज्ञ का भोग करने दो, अन्यथा युद्ध में मेरे द्वारा मारे जाओगे। दैत्य कब मानने वाले थे। युद्ध छिड़ गया।

देवी ने धनुष की टंकार करके दैत्यों के अस्त्र-शस्त्रों को काट डाला। जब अनेक दैत्य हार गए तो महादैत्य रक्तबीज युद्ध के लिए आगे बढ़ा। वह अपने हाथ में गदा लेकर इन्द्रशक्ति से युद्ध करने लगा। ऐन्द्री के वज्र प्रहार से उसके शरीर से रक्त बहने लगा तथा उसमें से उसी के समान पराक्रमी दैत्य पैदा होकर युद्ध करने लगे।

देवी शक्तियों के प्रहार से इन दैत्यों के शरीर से भी ज्यों-ज्यों रक्त टपकता त्यों-त्यों उन्हीं के समान पराक्रमी दैत्य पैदा होते जाते, जिनसे जगत् व्याप्त हो गया। इनसे देवता भयभीत हो गए। देवताओं को भयभीत देखकर चण्डिका ने काली से कहा, “चामुण्डे! तुम अपना मुख और भी फैलाओ। मेरे शस्त्र प्रहार से गिरने वाले रक्त बिन्दुओं तथा उनसे उत्पन्न होने वाले दैत्यों का भक्षण करती हुई रण भूमि में विचरण करती रहो। इस प्रकार उस दैत्य का रक्त क्षीण हो जाने से वह स्वयं नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार नए दैत्य भी उत्पन्न नहीं होंगे। “

इतना कहकर चंडिका ने शूल रक्तबीज पर प्रहार किया और काली ने उसका रक्त अपने मुंह में ले लिया। रक्तबीज ने क्रुद्ध हो कर देवी पर गदा का प्रहार किया परन्तु देवी को इससे कुछ भी वेदना न हुई। कालान्तर में देवी ने अस्त्र-शस्त्रों की बौछार से रक्तबीज का प्राणान्त कर डाला। प्रसन्न होकर देवतागण नृत्य करने लगे ।

रक्तबीज के वध का समाचार पाकर शुम्भ-निशुम्भ के क्रोध की सीमा न रही। दैत्यों की प्रधान सेना लेकर निशुम्भ महाशक्ति का सामना करने के लिए चल दिया। महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना सहित मातृगणों से युद्ध करने के लिए आ पहुँचा। दैत्य लड़ते-लड़ते मारे गये। संसार में शान्ति हुई और देवतागण प्रसन्न होकर देवी की स्तुति करने लगे।

(दोस्तों, उम्मीद है कि आपको navratri kab aur kyo manayi jati hai के बारे में पूरी जानकारी मिल गई होगी। अगर आपके मन में कोई सवाल है तो नीचे कमेंट करें हम जवाब तुरंत देंगे। आपके सहयोग से ही हमें आगे बढ़ना है। इसलिए गूगल पर हमारे वेबसाइट kyahotahai.com को सर्च करते रहिए और अपने पसंद का आर्टिकल पढ़ते रहिए। जय हो।

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