होली एक सामाजिक पर्व है। रंगों का त्यौहार है। जो 18 मार्च 2022, शुक्रवार को मनाया जाएगा। आबाल-वृद्ध, नर-नारी सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। इस राष्ट्रीय त्यौहार में वर्ण अथवा जाति भेद को स्थान नहीं है। इस दिन सायंकाल के बाद भद्रारहित लग्न में होलिका का दहन किया जाता है। भद्रा में होलिका जलाने से राष्ट्र में विद्रोह होता है। नगर में अशांति रहती है। इस अवसर पर लकड़ियों तथा घासफूस का बड़ा भारी ढेर लगा कर होलिका पूजन करके उसमें आग लगाई जाती है। प्रतिपदा, चर्तुदशी, भद्रा तथा दिन में होली-दहन का विधान नहीं है। पूजन के समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण किया जाता है
अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम् ।।
पूजनोपरांत होली-भस्म शरीर पर धारण करते समय इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है
‘वन्दितासि सुरेन्द्रेणब्रह्मणाशंकरेणच।
अतस्त्वं पाहि मां देवी! भूति भूतिप्रदा भव ।
वैदिक काल में इस पर्व को ‘नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत से अधकचे तथा अधपके अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने का विधान समाज में था। उस अन्न को होला कहते हैं। इसी से इसका नाम ‘होलिकोत्सव’ पड़ा। ‘होलिकोत्सव’ के मनाने के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ लोग इस पर्व को अग्नि देव का पूजन मात्र मानते । इस पर्व को नवसंवत्सर का आरम्भ तथा वसन्तागम के उपलक्ष में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है। इस दिन मनु का जन्म भी हुआ था। इसलिए इसे ‘मन्वादितिथि’ भी कहते हैं।इस त्यौहार का विशेष सम्बन्ध प्रह्लाद से है। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने के लिए अनेक उपाय किए; पर वह मरा नहीं। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। हिरण्यकशिपु ने वरदान का लाभ उठाकर लकड़ियों के ढेर में आग लगवाई और प्रह्लाद को उसकी गोद में देकर अग्नि में प्रवेश की आज्ञा दी। होलिका ने वैसा ही किया। दैवयोग से प्रदाद तो न जला; पर होलिका भस्म हो गई। तभी से भक्त प्रह्लाद की स्मृति में तथा असुर राक्षसी की स्मृति में इस पर्व को मनाते हैं।
इस त्यौहार को हिरण्यकशिपु की बहन ढुण्डा की स्मृति में मनाने का मत भी प्रचलित है। ऐसी भी मान्यता है कि प्रह्लाद को अग्नि में बैठकर जलाने का उद्यम करने वाली ढुण्ढा ही थी। कहते हैं यह राक्षसी बच्चों को तंग कर करके मार डाला करती थी। एक दिन व्रज के ग्वालों ने उसे पकड़ा। गालियाँ दी तथा पीटते-पीटते गाँव से बाहर ले गए। वहाँ उन्होंने उपलों, लकड़ियों तथा घास-फूस का ढेर बना कर उसमें आग लगा । आग के प्रज्वलित होते ही दुण्ढा को उठा कर उसमें पटक दिया। इस घटना की स्मृति में भी होली मनाते हैं।ऐसी भी मान्यता है कि इस पर्व का सम्बन्ध ‘कामदहन’ से है। जब भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ।फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है। भारत के कई प्रदेशों में होलाष्टक के शुरू होने पर एक पेड़ की शाखा काटकर उसमें रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े बाँधे जाते हैं। हर मनुष्य इस शाखा में एक-एक कपड़ा बाँधता है। इस शाखा को जमीन में गाड़ दिया जाता है। लोग इसके नीचे मस्त होकर गाते-बजाते तथा नाचते हैं। एक दूसरे पर रंग, अवीर तथा गुलाल आदि डालते हैं।इस दिन आम्रमंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। कहते हैं फाल्गुन पूर्णिमा के दिन जो लोग चित्त को एकाग्र करके हिंडोले में झूलते हुए श्री गोविन्द पुरुषोत्तम के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही बैकुण्ठ लोक को जाते हैं।’भविष्य पुराण’ के अनुसार नारद जी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा- ‘राजन्! फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन सब लोगों को अभयदान देना चाहिए जिससे सारी प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ करे। बालक गाँव के बाहर से लकड़ी तथा कंडे लाकर ढेर लगाएँ। होलिका का पूर्ण सामग्री सहित विधिवत् पूजन किया जाए। अट्टहास, किलकारियों तथा मंत्रोच्चारण से पापात्मा राक्षसों का नाश हो जाता है। होलिका दहन से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं।होली प्रमुखतः आनन्दोल्लास का पर्व है। इसमें वर्तमान संदर्भ में कुछ बुराइयाँ भी प्रवेश कर गई हैं। इस अवसर पर अबीर गुलाल तथा सुन्दर रंगों के स्थान पर कीचड़, गोबर, मिट्टी आदि फेंकने का भी रिवाज है। ऐसा करने से इस मेल-मिलाप के पावन पर्व पर शत्रुता जन्म ले लेती है। अतएव अश्लील तथा गंदे हँसी-मजाक तथा दूसरों के हृदय को चोट पहुँचाने वाले व्यवहार को सर्वथा त्याग देना चाहिए। होली सम्मिलन, मित्रता तथा एकता का पर्व है। इस दिन द्वेष-भाव भूल कर सबसे सप्रेम मिलना चाहिए। भगवद् भजन करना चाहिए।