यह व्रत जाने-अनजाने हुए पापों के प्रक्षालन के लिए स्त्री तथा पुरुषों को अवश्य करना चाहिये। इस दिन गंगा स्नान करने का विशेष माहात्म्य है। यदि गंगा स्नान सुलभ न हो तो पास वाली नदी अथवा तालाब में स्नान करना चाहिये। यदि यह भी सुलभ न हो तो घर पर प्राप्त जल में गंगाजल मिलाकर नहाना चाहिए। प्रातःकाल १०८ बार मिट्टी से हाथ मांजकर, मिट्टी-गोबर, तुलसी जी की मिट्टी, पीपल-मिट्टी, गंगा-मिट्टी, गोपी चंदन, तिल, आंवला, गंगाजल, गो मूत्र आदि को मिलाकर इनसे हाथ पांव धोओ। १०८ पत्ते सिर पर रखो। १०८ बार घंटी से नहाओ। नये कपड़े पहनो। गणेश जी का कलश, नवग्रहं तथा सप्त ऋषि, अरुन्धती की पूजा करके कथा सुनो। पूजा के बाद चार केले, थोड़ा घी, चीनी तथा दक्षिणा रखकर बायना निकालो। इस पर हाथ फेरकर किसी ब्राह्मण या ब्राह्मणी को दे दो। एक समय भोजन करो। भोजन में दूध, घी, दही, नमक, चीनी, अनाज कुछ नहीं खाना चाहिए। केवल फलाहार ही करना चाहिए।

कथा – सिताश्व नामक एक राजा हुए हैं। उन्होंने एक बार ब्रह्मा जी से पूछा- “पितामह ! सब व्रतों में श्रेष्ठ और तुरन्त फलदायक व्रत का विधान बताइये?”

ब्रह्मा जी ने उत्तर में बताया, “राजन्! ऋषि पंचमी का व्रत ऐसा ही है। इसके करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। विदर्भ देश में उत्तंक नामक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता थी, जिसका नाम सुशीला था। उस ब्राह्मण के घर दो संतानें थीं – एक पुत्र तथा एक पुत्री। विवाह योग्य होने पर उसने समान कुलाशील वाले वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया। दैवयोग से कुछ दिनों के बाद वह विधवा हो गई। दुखी ब्राह्मण दम्पत्ति कन्या सहित गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे। एक दिन कन्या सो रही थी कि उसका शरीर कीड़ों से भर गया। कन्या ने सारी बात मां से कही। मां ने पति से सब कहते हुए पूछा, “प्राणनाथ! मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है?”

उत्तंक ने समाधि लगाकर इस घटना का पता लगाकर बताया कि पूर्वजन्म में यह कन्या ब्राह्मणी थी। इसने रजस्वला होते ही बर्तन छू दिये थे। इस जन्म में भी इसने लोगों की देखा-देखी ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। इसीलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं। धर्म-शास्त्रों की मान्यता है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करले तो इसके सारे दुःख छूट जायेंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य को प्राप्त होगी।

पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ‘ऋषि पंचमी’ का व्रत एवं पूजन किया। व्रत के प्रभाव से वह सारे दुखों से मुक्त हो गई। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।

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