श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। देवसमाज सर्वोपरि हैं। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय गणेश जी जन्म हुआ था। गजानन गणेश बुद्धि के देवता हैं। गणेश का वाहन चूहा है। ऋद्धि तथा सिद्धि इनकी दो पत्नियाँ हैं। इनका सर्वप्रिय भोग लड्डू है ।

इस दिन प्रातःकाल स्नानादि करके सोने, ताम्बे, मिट्टी अथवा गोबर प्रतिमा बनाई जाती है। गणेश जी की प्रतिमा कोरे कलश जल भर कर, मुंह बांधकर उस स्थापित किया जाता है गणेश जी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाकर षोडशोपचार सहित उनका पूजन किया जाता है गणेश जी को दक्षिणा अर्पित करके २१ लड्डुओं के भोग का माहात्म्य है। इनमें से पाँच लड्डू गणेश जी की प्रतिमा के पास रखकर शेष ब्राह्मणों में बाँट देने चाहिए। गणेश जी की पूजा सायंकाल की जानी चाहिए। पूजनोपरांत चन्द्रमा को अर्घ्य देकर ब्राह्मणों को भोजन करा दक्षिणा भी चाहिए । वस्त्र ढका हुआ कलश, दक्षिणा गणेश प्रतिमा आचार्य समर्पित करके गणेश जी के विसर्जन का उत्तम विधान माना गया है। गणेश जी का यह पूजन, बुद्धि, विद्या तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति एवं विघ्नों के नाश के लिए किया जाता है।

कथा (१) –एक बार महादेव जी पार्वती सहित नर्वदा के तट पर गए। वहाँ एक सुन्दर स्थान पर पार्वती जी ने महादेव जी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। शिवजी ने कहा हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोर कर मनुष्य का पुतला बना कर उसमें प्राण प्रतिष्ठा करके कहा, “बेटा! हम चौपड़ खेलने लगे हैं। खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत का साक्षी होकर बताना कि कौन जीता कौन हारा ?”

खेल में तीनों बार पार्वती जी जीत गईं। अन्त में बालक से हार जीत पूछी गई तो उसने महादेव जी को विजयी बताया। परिणामतः पार्वती जी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होकर वहाँ की कीच में पड़ा रह कर दुःख भोगने का शाप दे दिया। बालक ने विनम्रता पूर्वक कहा, “माँ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा किया जाए। तब पार्वती जी ने उससे कहा, “यहाँ नागकन्याएँ गणेश पूजन करने आयेंगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे। इतना कहकर वे कैलाश पर्वत पर चली गईं।

एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आयीं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात् बालक ने १२ दिन तक श्री गणेश जी का व्रत किया। गणेश जी ने उसे दर्शन दे कर कहा, “मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनवांछित वर मांगो। ” बालक बोला, ” ‘भगवन्! मेरे पांव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ। ” गणेश जी ‘तथास्तु’ कह कर अन्तर्धान हो गये। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा। बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह २१ दिन पर्यन्त श्री गणेश जी का व्रत किया। जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेव जी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई। वे शीघ्र कैलाश पर्वत पर पहुँचीं। वहाँ पहुँचकर पार्वती जी ने शिवजी से पूछा कि आपने कौन-सा उपाय किया जिसके परिणामस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने ‘गणेश व्रत’ का इतिहास उनसे कह डाला।

तब पार्वती जी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से २१ दिन पर्यन्त २१-२१ की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेश जी का पूजन किया । २१ वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वती जी से आ मिले। उन्होंने भी मां के मुख से इस व्रत का महात्म्य सुन कर व्रत किया। कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्र जी को बतायः। विश्वामित्र जी ने व्रत करके गणेश जी से जन्म से मुक्त होकर ‘ब्रह्म ऋषि’ होने का वर मांगा गणेश जी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की।

कथा (२) – एक बार महादेव जी स्नान करने के लिए भोगावती गए। उनके चले जाने के पश्चात् पार्वती ने अपने तन की मैल से एक पुतला बनाया। उसका नाम ‘गणेश’ रखा गया। पार्वती ने उससे कहा कि एक मुगदल लेकर द्वार पर बैठ जाओ । जब तक मैं नहा रही हूँ किसी पुरुष को भीतर मत आने देना।

भोगावती पर स्नान करने के बाद जब भगवान शिवजी आए तो गणेश जी ने उन्हें द्वार पर रोका। शिवजी ने अपना अपमान समझ कर उस पर क्रोध किया और उसका सिर धड़ से अलग करके भीतर चले गए। पार्वती जी ने समझा कि भोजन में विलम्ब होने के कारण महादेव जी नाराज हैं। इसलिए उन्होंने तत्काल दो थालियों में भोजन परोस कर शिवजी को बुलाया। शिवजी ने पूछा, “यह दूसरा थाल किसके लिए है?” तब पार्वती ने उत्तर दिया, “पुत्र गणेश के लिए है जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है। यह सुन कर शिवजी ने कहा, “मैंने तो उसका सिर काट दिया है। यह सुन कर पार्वती जी बहुत दुःखी हुई। पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए एक हाथी के बच्चे का सिर काट कर बालक के धड़ से जोड़ दिया गया। पार्वती जी इस प्रकार पुत्र गणेश को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने पति तथा पुत्र को प्रीतिपूर्वक भोजन करा कर पीछे स्वयं भोजन किया। यह घटना भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को हुई थी। इसीलिए यह तिथि पुण्य पर्व के रूप में मनाई जाती है।

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