कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को पुत्रवती स्त्रियाँ निर्जल व्रत रखती हैं। सन्ध्या समय दीवार पर आठ कोनों वाली एक पुतली अंकित की जाती है। पुतली के पास ही स्याहू माता व उसके बच्चे बनाए जाते हैं। इस दिन शाम के चन्द्रमा को अर्घ्य देकर कच्चा भोजन खाया जाता है तथा निम्न कथा कही जाती है—
अहोई अष्टमी पहली कथा –
चम्पा नामक स्त्री का विवाह हुए पांच वर्ष व्यतीत हो गए पर उसे सन्तान प्राप्त न हुई। किसी वृद्धा ने उसे होई का व्रत रखने की सलाह दी। चम्पा की पड़ोसन चमेली ने भी सन्तान प्राप्ति के लिए चम्पा की देखा-देखी होई का व्रत रखना शुरू किया। चम्पा श्रद्धा से व्रत करती। पर चमेली स्वार्थ भावना से प्रेरित होकर । एक दिन देवी ने प्रकट होकर इनसे पूछा कि तुम्हें क्या चाहिए तो चमेली ने झट से एक पुत्र मांग लिया तथा चम्पा विनम्र भाव से बोली- क्या आपको भी अपनी इच्छा बतानी होगी? आप तो सर्वज्ञ हैं।
देवी ने कहा – उत्तर दिशा में एक बाग में बहुत से बच्चे खेल रहे हैं। वहां जो तुम्हें रुचे ले आना। यदि न ला सकी तो सन्तान नहीं मिलेगी।
दोनों बाग में जाकर बच्चों को पकड़ने लगीं। बच्चे रोने लगे तथा भागने लगे। चम्पा से उनका रोना नहीं देखा गया। उसने कोई भी बच्चा नहीं पकड़ा पर चमेली ने एक रोते हुए बच्चे को बालों से कसकर पकड़ लिया। देवी ने चम्पा की दयालुता की तारीफ करते हुए उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। पर चमेली को माँ बनने में अयोग्य सिद्ध कर दिया। चम्पा को नौ माह बाद पुत्र प्राप्ति हो गई पर चमेली असफल लौटी। तब से पुत्रेच्छा के लिए श्रद्धा से यह व्रत किया जाता है।
अहोई अष्टमी दूसरी कथा –
ननद-भाभी एक दिन मिट्टी खोदने गईं। मिट्टी खोदते खोदते ननद ने गलती से स्याऊ माता का घर खोद दिया। इससे स्याऊ माता के अण्डे टूट गए व बच्चे कुचले गए। स्याऊ माता ने जब अपने घर व बच्चों की दुर्दशा देखी तो क्रोधित हो ननद से बोली- तुमने मेरे बच्चों को कुचला है। मैं तुम्हारे पति व बच्चों को खा जाऊंगी। स्याऊ को क्रोधित देख ननद तो डर गई। पर भाभी स्याऊ माता के आगे हाथ जोड़कर विनती करने लगी तथा ननद की सजा स्वयं सहने को तैयार हो गई। स्याऊ माता बोली कि मैं तेरी कोख व मांग दोनों हरूंगी। इस पर भाभी बोली- -माँ मेरा इतना कहना मानो–कोख चाहे हर लो पर मेरी मांग न हरना। स्याऊ मान गई।
समय बीतता गया। भाभी के बच्चा पैदा हुआ शर्त के अनुसार भाभी ने अपनी पहली सन्तान स्याऊ माता को दे दी। इसी प्रकार एक-एक करके छः सन्तानें स्याऊ माता ले गई। वह छः पुत्रों की मां बन कर भी निपूती ही रही। जब सातवीं सन्तान होने का समय आया तो एक पंड़ोसन ने उसे सलाह दी कि अब स्याऊ मां बच्चा लेने आए तो बच्चे को उनके आंचल में डाल उनके पैर छू लेना। फिर बातों के दौरान बच्चे को रुला देना । जब स्याऊ मां पूछें कि यह क्यों रो रहा है तो कहना कि तुम्हारे कान की बाली मांगता है। बाली दे कर ले जाने लगे तो फिर पांव छू लेना। यदि वे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दें तो बच्चे को मत ले जाने देना
सातवीं सन्तान भी हुई। स्याऊ माता उसे लेने आईं। पड़ोसिन की बताई विधि से उसने स्याऊ के आंचल में डाल दिया। बातें करते-करते बच्चे को चुटकी भी काट ली बालक रोने लगा तो स्याऊ ने उसके रोने का कारण पूछा तो भाभी बोली कि तुम्हारे कान की बाली मांगता है। स्याऊ ने कान की बाली उसे दे दी। जब चलने लगीं तो भाभी ने पुनः पैर छुए। तो स्याऊ ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। तो भाभी ने स्याऊ से अपना बच्चा मांगा और कहने लगी -पुत्र के बिना पुत्रवती कैसे? स्याऊ माता ने हार अपनी मान ली। तथा कहने लगीं मुझे तुम्हारे पुत्र नहीं चाहिए मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रही थी यह कहकर स्याऊ ने अपनी लट फटकारी तो छः पुत्र पृथ्वी पर आ पड़े। माता ने अपने पुत्र पाए तथा स्याऊ भी प्रसन्न मन से घर गईं।