तुलसी नामक पौधे की महिमा वैद्यक ग्रंथों के साथ-साथ धर्मशास्त्रों में भी काफी गाई गई है। शास्त्रों में तुलसी को विष्णु प्रिया भी माना गया है। इस विषय में एक कथा है
श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर गर्व था। वे सोचती थी कि रूपवती होने के कारण ही श्रीकृष्ण अन्यों की अपेक्षा उन पर अधिक स्नेह रखते हैं। एक दिन जब नारद जी उधर गए तो सत्यभामा ने कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी श्रीकृष्ण ही मुझे पतिरूप में प्राप्त हो । नारद बोले कि यह नियम है यदि कोई अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी। अतः तुम भी श्रीकृष्ण को दान रूप में मुझे दे दो तो वे तुम्हें अगले जन्मों में जरूर मिलेंगे। सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारद जी को दान रूप में दे दिया। जब नारद जी ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया। तो नारद जी बोले कि यदि श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्ने दे दोगी तो हम इन्हें छोड़ देंगे। तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में, सभी रानियाँ अपने आभूषण चढ़ाने लगीं। पर पलड़ा टस से मस न हुआ। यह सुन सत्यभामा ने कहा- ‘मैंने यदि इन्हें दान किया है तो उबार भी लूंगी। ऐसा कहकर अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए पर पलड़ा न हिला । तो वे बड़ी लज्जित हुईं। सारा समाचार जब रुक्मिणी जी ने सुना तो वे तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आई। उस पत्ती को पलड़े पर रखते ही तुला का वजन बराबर हो गया। नारद तुलसी दल ले स्वर्ग को चले गए। रुक्मणी श्रीकृष्ण की पटरानी थीं। तुलसी के वरदान के कारण ही वे अपनी व अन्यों की सौभाग्य रक्षा कर सकीं। तब से तुलसी को वह पूज्य पद प्राप्त हो गया कि श्रीकृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
आज की एकादशी में तुलसी का व्रत व पूजन किया जाता है।