कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास जी का नाम बड़े गौरव से लिया जाता है । इनका जन्म संवत् १६३५ में वैशाख शुक्ला पंचमी को आगरे के रुनकता गाँव में हुआ था। कृष्ण के प्रेम में मग्न होकर इन्होंने अलौकिक गीतों की रचना की। कहा जाता है कि ये जन्म से ही अन्धे थे। पर श्रीकृष्ण के बाल रूप का इन्होंने जैसा वर्णन किया है वह हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है। उस बाल-वर्णन को देखकर इन्हें जन्मान्ध नहीं कहा जा सकता। कहा जाता है कि नेत्रहीन सूरदास द्वारिकाधीश के मन्दिर में दर्शनार्थ जाया करते थे। किसी ने व्यंग्य कसा–बाबा! तुम यहाँ क्या करने आते हो? इस पर सूरदास जी ने विनयपूर्वक उत्तर दिया- भाई, मैं तो अन्धा हूँ, पर जगत्पिता तो सब देखते हैं कि एक अन्धा उनके दरबार में अपनी हाजिरी लगा जाता
अपने गुरु से कृष्ण -भक्ति की दीक्षा ले ब्रज के कण-कण में कृष्ण को खोजने लगे। अन्धे होने के कारण एक सूखे कुंए में गिर पड़े। तो भगवान ने उन्हें सहारा देकर बाहर निकाला। वे स्पर्श से ही प्रभु को पहचान गए। भगवान जब हाथ छुड़ाकर जाने लगे तो सूरदास अधीर हो कहने लगे
“हाथ छुड़ाये जात हो, निबल जान के मोहि ।
हिरदै सौं जब जाहुगे, सबल बदौंगो तोहि ।।
भगवान के दर्शन एक ही जन्म में हो जाएं ऐसा तो कोई विरला ही होता है। हरि को पाने के लिए तो हजारों वर्षों का पुण्य चाहिए। उस पुण्य को प्राप्त करने का श्रेय करते-करते ऐसा समय भी आ जाता है जब प्रभु स्वयं ही साधक की खोज के लिए आकुल हो उठते हैं।
कृष्ण के परम भक्त महात्मा सूरदास की जयन्ती मनाकर हम अपने हृदय की श्रद्धा उन्हें अर्पण करते हैं।