कोचीन से पाँच-छः मील दूर कालटी ग्राम में भगवान शंकराचार्य का जन्म विक्रमी संवत् ८४५(845) को हुआ। ये प्रतिभा सम्पन्न बालक थे। तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। पिता चाहते थे कि पुत्र संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करे। परन्तु पिता की अकाल मृत्यु ने सारा बोझ शंकर की माता के कन्धों पर छोड़ दिया । पाँच वर्ष की अवस्था में इन्हें वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया। इनकी प्रतिभा से इनके गुरु भी चकित थे।

मां चाहती थी कि पुत्र का शीघ्र विवाह करके पुत्र-वधू का मुंह देखूँ। पर शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे। ज्योतिषी ने उनकी जन्म-पत्री देखकर बताया, आठवें या सोलहवें वर्ष में उनकी मृत्यु का योग है। यह सुनकर उनके मन में संन्यास लेकर लोक सेवा की भावना प्रबल हो गई। संन्यास के लिए मां से आज्ञा भी ले ली।

तीन वर्ष तक अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। संन्यास ग्रहण करने के बाद विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए काशी जा रहे थे कि एक चाण्डाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चाण्डाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चाण्डाल बोला – हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं इसीलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जाओ।

उस चाण्डाल की देववाणी को सुनकर आचार्य शंकर ने कहा – “तुमने मुझे ज्ञान दिया है अतः मेरे गुरु हुए । यह कहकर शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो चाण्डाल के स्थान पर शिव तथा चार वेदों का उन्हें दर्शन हुआ। काशी में कुछ दिन रहने के उपरान्त वे माहिष्मती नगरी में आचार्य मण्डन मिश्र जी से मिलने गए। मार्ग में स्त्रियों से मिश्र जी के घर का पता पूछा तो वे बोलीं- जहाँ द्वार में बैठी मैना वेद मंत्रों का उच्चारण करती हो वहीं मिश्र जी का घर है। मिश्र जी के घर जाकर शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया। पति को हारता देख पत्नी बोली – “महात्मन्! अभी आपने आधे ही अंग को जीता है। अपनी युक्तियों से मुझे पराजित करके ही आप विजित कहला सकेंगे। “

मिश्र जी की पत्नी शारदा ने कामशास्त्र पर प्रश्न करना प्रारम्भ किया। शंकर बाल-ब्रह्मचारी थे। उन्होंने शारदा देवी से कुछ दिनों का समय मांगा तथा पर काया प्रवेश से उस विषय की सारी जानकारी प्राप्त करके शारदा को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया। इस प्रकार विजयी होकर धर्म का प्रचार करने लगे। वेदान्त प्रचार में लगे हुए अनेक ग्रन्थों की रचना उन्होंने की। तेतीस वर्ष की आयु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।

शंकर के अवतार आचार्य शंकर को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला पंचमी को उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकर जयन्ती मनाई जाती है

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