वैसे तो प्रत्येक मास की कृष्णा चतुर्थी को गणेश व्रत होता है फिर भी माघ, श्रावण, भाद्रपद तथा मार्गशीर्ष में इस व्रत का विशेष माहात्म्य है। इस दिन काल सफेद तिलों से बने उबटन से स्नान करके दोपहर को गणेश पूजन के समय इस मंत्र का जाप करना चाहिये-
‘एकदन्तं शूर्पकर्ण गजवक्त्रं चतुर्भुजम् । पाशांकुशधर देव ध्यायेत्सिद्धिविनायकम् ॥
तत्पश्चात् आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, पंचामृत स्नान, शुद्धोदक स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, सिंदूर, आभूषण, दूर्वा, धूप, दीप, पुण्य, नैवेद्य, पानादि से विधिवत् पूजन करके दो लाल वस्त्रों का दान करना चाहिये। पूजन के समय घी से बने २१ पूग या २१ लड्डू गणेश जी के पास रख कर पूजन समाप्त करना चाहिए। इनमें से दस-दस अपने पास रखकर शेष गणेश मूर्ति एवं दक्षिणा सहित किसी ब्राह्मण को जिमा कर दान कर दो।
इस दिन चन्द्रमा के दर्शन करने से झूठा कलंक लगता है। उसी के निवारण के लिए सिद्धि-विनायक व्रत का विधान है। इस दिन चन्द्रमा का दर्शन करने से भगवान कृष्ण को भी झूठा लांछन लगा था।
कथा – एक बार नन्दकिशोर ने सनत्कुमारों के कहा कि चौथ के चन्द्रमा के दर्शन करने से भी श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था वह इस सिद्धि विनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था। ऐसा सुनकर सनत्कुमारों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कथा पूछी तो नन्दिकेश्वर ने बताया कि एक बार जरासन्ध के भय से श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसा कर रहने लगे। इसी पुरी का नाम आजकल द्वारिका पुरी है। द्वारिका पुरी में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्यनारायण की आराधना की। भगवान सूर्य ने उसे नित्य आठ भार सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतार कर दे दी। मणि पाकर सत्राजित यादव समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मणि को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। सत्राजित ने वह मणि श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी।
एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर चढ़कर शिकार के लिए गया । वहाँ एक शेर ने उसे मार डाला और मणि ले ली। रीछों का राजा जामवन्त सिंह को मारकर मणि लेकर गुफा में चला गया।
जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मार कर स्यमन्तक मणि छीन ली है। इस लोक-निन्दा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों सहित वन में प्रसेनजित को ढूंढ़ने लगे। वहाँ पर प्रसेनजित को, शेर द्वारा मारना, शेर को रीछ द्वारा मारने के चिन्ह उन्हें मिल गये। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जामवन्त की गुफा पर पहुँचे। वे गुफा के भीतर चले गये। वहाँ उन्होंने देखा कि जामवन्त का पुत्र तथा पुत्री उस मणि से खेल रहे हैं। श्रीकृष्ण को देखते ही जामवन्त युद्ध के लिए तैयार हो गया। युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी सात दिन तक प्रतीक्षा की। न लौटने पर लोग उन्हें मरा हुआ जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिका लौट गये।
इक्कीस दिन लगातार युद्ध करने पर भी जामवन्त श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, हो न हो यही वह अवतार है जिसके लिए मुझे रामचन्द्र जी का वरदान मिला था। ऐसा सोचकर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी। इधर सत्राजित ने भी लज्जित होकर अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया। श्रीकृष्ण ने मणि सत्राजित को दे दी।
कुछ समय के बाद किसी काम से श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ चले गये। अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा नामक यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार श्रीकृष्ण को मिला तो वे तत्काल द्वारिका पहुँचे। वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गये। इस कार्य में सहायता देने के लिए भी तैयार हुए। ऐसा जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं द्वारिका भाग गया। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार डाला पर मणि उन्हें न मिल पाई। बलराम जी भी वहाँ पहुँचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि तो इसके पास है नहीं। बलराम जी को विश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गये। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया। श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहाँ नारद जी आ गये। उन्होंने श्रीकृष्ण जी को बताया कि आपने भाद्र शुक्ला चतुर्थी के चन्द्रमा का दर्शन किया था। इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।
श्रीकृष्ण ने पूछा कि चौथ के चन्द्रमा को ऐसा क्या हो गया है। जिसके कारण उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कलंकित होता है। तब नारद जी बोले- -एक बार ब्रह्मा जी ने चतुर्थी के दिन गणेश जी का व्रत किया था। गणेश जी ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा तो उन्होंने मांगा कि मुझे सृष्टि की रचना करने का मोह न हो। | गणेश जी ज्योंही तथास्तु कहकर चलने लगे तो उनके विचित्र व्यक्तित्व को देखकर चन्द्रमा ने उपहास किया। इस पर गणेश जी ने रुष्ट होकर चन्द्रमा को शाप दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा। शाप देकर गणेश जी अपने लोक को चले गये और चन्द्रमा मानसरोवर की कुमुदिनियों में जा छिपा। चन्द्रमा के बिना प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। उनके कष्ट को देखकर ब्रह्मा जी की आज्ञा से सारे देवताओं के व्रत से प्रसन्न होकर गणेश जी ने वरदान दिया कि अब चन्द्रमा शाप से मुक्त तो हो जाएगा पर वर्ष में भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को जो कोई भी चन्द्रमा के दर्शन करेगा उसे चोरी आदि का झूठा लांछन जरूर लगेगा किंतु जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया के दर्शन करता रहेगा वह इस लांछन से बच जाएगा। इस चतुर्थी को सिद्धि-विनायक व्रत करने से सारे दोष छूट जाएंगे। यह सुनकर देवता अपने-अपने स्थान को चले गए तथा चन्द्रमा मानसरोवर से निकलकर चन्द्रलोक में आ गया। अतएव इसी चन्द्रमा का दर्शन करने से आपको यह कलंक लगा है। तक श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने के लिए यही व्रत किया था।
कुरुक्षेत्र के युद्ध में युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, “भगवान्! मनुष्य की मनोकामना सिद्धि का कौन-सा उपाय है? किस प्रकार मनुष्य धन, पुत्र, सौभाग्य तथा विजय प्राप्त कर सकता है?”
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- “यदि तुम पार्वतीपुत्र श्री गणेश का विधिपूर्वक पूजन करोगे तो निश्चय ही तुम्हें राज्य प्राप्त होगा। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर जी ने गणेश चतुर्थी का व्रत करके युद्ध जीता था।