माघ कृष्ण चतुर्थी को सकठ का त्यौहार मनाया जाता है। इस दिन संकट हरण गणपति गणेश जी का पूजन होता है। इस व्रत को करने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। और समस्त इच्छाओं व कामनाओं की पूर्ति होती है।
इस दिन स्त्रियाँ दिन भर निर्जल व्रत रख कर शाम को फलाहार लेती हैं। दूसरे दिन सुबह सकठ माता पर चढ़ाए गए पूरी-पकवानों को प्रसाद रूप में ग्रहण करती हैं। तिल को भून कर गुड़ के साथ कूट लिया जाता है। तिलकुट का पहाड़ बनाया जाता है। कहीं-कहीं तिलकुट का बकरा भी बनाया जाता है। उसकी पूजा करके घर का कोई बच्चा तिलकुट के बकरे की गर्दन काट देता है। सबको इसका प्रसाद दिया जाता है। पूजा के बाद सब कथा सुनते हैं।
कथा – किसी नगर में एक कुम्हार रहता था। एक बार जब उसने बर्तन बना कर आँवा लगाया तो आँवा पका ही नहीं। हार कर वह राजा के पास जा कर प्रार्थना करने लगा। राजा ने राजपंडित को बुला कर कारण पूछा तो राज-पंडित ने कहा कि हर बार आँवा लगाते समय बच्चे की बलि देने से आँवा पक जाएगा।
राजा का आदेश हो गया। बलि आरम्भ हुई। जिस परिवार की बारी होती वह परिवार अपने बच्चों में से एक बच्चा बलि के लिए भेज देता। इसी तरह कुछ दिनों बाद सकठ के दिन एक बुढ़िया के लड़के की बारी आई। बुढ़िया के लिए वही जीवन का सहारा था। पर राजाज्ञा कुछ नहीं देखती। दुःखी बुढ़िया सोच रही थी कि मेरा यही तो एक बेटा है, वह भी सकठ के दिन मुझ से जुदा हो जाएगा। बुढ़िया ने लड़के को सकठ की सुपारी तथा दूब का बीड़ा देकर कहा, “अब भगवान का नाम लेकर आँवा में बैठ जाना। सकठ माता रक्षा करेंगी। ” बालक आँवा में बिठा दिया गया और बुढ़िया सकठ माता के सामने बैठ कर पूजा, प्रार्थना करने लगी। पहले तो आँवा पकने कई दिन लग जाते थे; पर इस बार सकठ माता की कृपा से एक ही रात में आँवा पक गया। सवेरे कुम्हार ने देखा तो हैरान रह गया। आँवा पक गया था। बुढ़िया का बेटा तथा अन्य बालक भी जीवित व सुरक्षित थे। नगर निवासियों ने सकठ की महिमा स्वीकार की तथा लड़के को भी धन्य माना। सकठ की कृपा से नगर के अन्य बालक भी जी उठे।