प्रदोष से तात्पर्य है रात्रि का आरम्भ। इस व्रत के पूजन का विधान इसी समय होता है, इसलिए इसे ‘प्रदोष व्रत’ कहते हैं। यह व्रत प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी को किया जाता है। इसका उद्देश्य संतान की कामना है। इसे स्त्री-पुरुष दोनों ही कर सकते हैं। इस व्रत के उपास्य देव भगवान शंकर हैं। प्रदोषकाल में महादेवी का ही विधिवत् पूजन किया जाता है। व्रती को सायंकाल शंकर जी का पूजन करके ही एक बार भोजन करना चाहिए। यदि कृष्ण पक्ष का प्रदोष व्रत शनिवार हो पड़ता हो तो उसे ‘शनि प्रदोष’ कहते हैं। शंकर जी का दिन सोमवार है। सोमवार को पड़ने वाले प्रदोष व्रत ‘सोम प्रदोष’ कहलाता है। ‘प्रदोष व्रत’ के लिए श्रावण के प्रत्येक सोमवार का विशेष महात्म्य है।
कथा – प्राचीन काल में एक ब्राह्मणी विधवा हो गई। भिक्षा मांग कर अपना जीवन निर्वाह करने लगी। वह सवेरे अपने पुत्र को लेकर निकलती और सायंकाल घर लौटती। एक दिन उसकी भेंट विदर्भ देश के राजकुमार से हुई। राजकुमार अपने पिता की मृत्यु हो जाने से शोक में मारा-मारा घूम रहा था। उसकी दशा देखकर ब्राह्मणी को बड़ी दया आयी। वह उसे अपने साथ घर ले आई। उसने उसे पुत्र के समान पाला। एक दिन वह ब्राह्मणी दोनों बालकों को लेकर शांडिल्य ऋषि के आश्रम में गई। ऋषि से भगवान शंकर के पूजन की विधि जानकर वह प्रदोष व्रत करने लगी।
एक दिन दोनों बालक वन में घूम रहे थे। उन्होंने वहाँ गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते देखा। ब्राह्मण कुमार घर लौट आया। राजकुमार अंशुमती नामक गंधर्व-कन्या से बात करने लग गया। देर से घर लौट पाया। दूसरे दिन भी वह उसी स्थान पर पहुँच गया। अंशुमती वहाँ अपने माता-पिता के साथ बैठी हुई थी। माता-पिता ने उससे कहा कि हम भगवान शंकर की आज्ञा से अंशुमती का विवाह तुम्हारे साथ करेंगे। राजकुमार मान गया। विवाह हो गया। उसने गन्धर्वराज विद्रविक की विशाल सेना लेकर विदर्भ पर अधिकार कर लिया। यह प्रदोष व्रत का ही फल था। तभी से समाज में ‘प्रदोष व्रत’ की प्रतिष्ठा हुई ।