November 21, 2024

महालया आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को पूर्ण होता है। इसे ‘पितृ पक्ष’ भी कहते हैं। इस पक्ष में मृतक पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध करने का अधिकार ज्येष्ठ पुत्र अथवा नाती को होता है। इस पक्ष में न ‘क्षौर-कर्म’ ही करवाते हैं और न ही शरीर में तेल लगाते हैं। श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन करा कर दक्षिणा दी जाती है। श्राद्ध से तात्पर्य ही सम्मान प्रकट करना है चाहे वह मृत हो अथवा जीवित। पितृपक्ष में पितरों की मरण तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाता है। गया में श्राद्ध करने का बड़ा महत्व माना गया है। पितृपक्ष में देवताओं को जल देने के पश्चात् मृतकों का नामोच्चारण करके उन्हें भी जल देना चाहिए।

कथा – जोगे तथा भोगे दो भाई थे। दोनों अलग-अलग रहते थे। जोगे धनी था। भोगे निर्धन। दोनों में बड़ा प्रेम था। जोगे की स्त्री को धन पर अभिमान था। भोगे की स्त्री बड़ी सरल थी।

पितृ पक्ष आने पर जोगा श्राद्ध करने से टला पर उसकी स्त्री ने कहा -“भोगा की पत्नी को बुला लूँगी। दोनों मिलकर सारा काम कर लेंगी। परेशानी क्या होगी’? उसने जोगे को अपनी पीहर न्योता देने भेज दिया। भोगा की पत्नी बड़े तड़के आकर काम में जुट गयी। उसने रसोई तैयार की। अनेक पकवान बनाये। वह सारा दिन जिठानी के यहाँ काम से लगी रही। दोपहरी हुई। पितर भूमि पर उतरे। जोगे-भोगे के पितर पहले जोगे के यहाँ गये तो क्या देखते हैं कि उसके ससुराल वाले वहाँ भोजन पर जुटे हैं। निराश होकर भोगे के यहाँ गये। वहाँ क्या था? मात्र पितरों के नाम पर ‘अगियारी’ दे दी गयी थी। पितरों ने उसकी राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर पहुँचे। थोड़ी देर में सारे पितर इकट्ठे हो गये। अपने-अपने यहाँ के श्राद्धों की बड़ाई करने लगे। जोगे-भोगे के पितरों ने आपबीती सुनाई। उन्हें ‘भोगे’ पर दया आयी। लगे- “भोगवा के धन हो जाय। वे नाच-नाचकर गाने लगे

सांझ होने को हुई। भोगे के बच्चों को कुछ भी खाने को न मिला। वे माँ को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते जोगे के घर पहुँचे तथा कुछ खाने को मांगने लगे। पर उन्हें वहाँ भी कुछ खाने को न मिल सका। तब उनकी माँ ने कहा- जाओ! आँगन में हौदी औंधी रखी है। उसे जा कर खोलो। जो कुछ वहां मिले, बाँट कर खा लेना।” बच्चे वहां पहुँचे तो क्या देखते हैं कि वहाँ तो मोहरें ही मोहरे हैं। दही चाँदी हो गया था। पूरियाँ सोने की हो गयी थीं। वे पुनः माँ के पास पहुंचे। उन्होंने माँ को सारी बातें बतायीं घर आकर माँ ने देखा तो वह भी हैरान रह गयी। भोगे धनी हो गया। वह धन पाकर इतराया नहीं।

दूसरे साल का पितृपक्ष आया। श्राद्ध के दिन भोगे के स्त्री ने छप्पन व्यंजन बनाये। ब्राह्मणों को बुलाकर श्राद्ध किया। भोजन कराया। दक्षिणा दी। जेठ-जेठानी को सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन कराया। पितर लोग बड़े प्रसन्न तथा तृप्त हुए। रात को जब जिठानी ने अपने पति से भोगे द्वारा किये गये श्राद्ध की बड़ायी की तो जोगा बोला- ‘उसने मात्र श्राद्ध ही नहीं किया तुम्हारे मुंह पर थूका भी है। बेचारी बड़ी लज्जित हुई।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *