यह दिन विक्रमीय संवत् का प्रथम दिन माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी तथा शेष देवताओं ने इसी दिन से सृष्टि के संचालन के दायित्व का पूरा कार्यभार संभाल लिया था। इसीलिए यह संवत्सर ब्रह्मा जी का मूर्त प्रतीक माना जाता है। ‘स्मृत-कौस्तुभ’ के अनुसार इस दिन रेवती नक्षत्र के विष्कुम्भ योग में भगवान का मत्स्य अवतार हुआ था। ईरान में ‘नौरोज’ का आरम्भ भी इसी दिन से होता है जो संवत्सराम्भ का पर्याय है। सम्राट विक्रमादित्य के संवत्सर का आरम्भ भी इसी दिन से होता है। ‘शक्ति सम्प्रदाय’ के अनुसार इसी दिन से ‘नवरात्रि’ का श्रीगणेश होता है। इसीलिए मांगलिक वर्ष की कामना से ‘दुर्गा सप्तशती’ तथा ‘रामायण’ आदि का पाठ इसी दिन से आरम्भ हो जाता है
इस दिन प्रातःकाल स्नानादि करके उज्जवल वस्त्राभूषण पहन कर गंध, अक्षत, पुष्प जल आदि से विधिपूर्वक नव संवत्सर का पूजन करना चाहिए। चौकी या रेत की वेदी पर स्वच्छ तथा शुभ कोरा (नया) वस्त्र बिछाओ। वस्त्र पर हल्दी या केसर से अक्षतों को रंग कर अष्टदल कमल बनाकर पूरा नारियल या संवत्सर ब्रह्मा की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित करो। फिर धूपादि जलाकर ‘ओ३म् ब्रह्मणे नमः’ का जप करके ब्रह्मा का आह्वान करके विधिपूर्वक पूजन तथा गायत्री मंत्रों से हवन करो। मंगलमय वर्ष की कामना करो। घर को सुसज्जित करो। नीम की पत्तियाँ खाओ तथा खिलाओ। ब्राह्मण देवता की अर्चना करके ‘प्याऊ’ की स्थापना करो। नये वर्ष का पंचांग ब्राह्मण के श्री मुख से सुनो।
नव संवत्सर-पूजन का उद्देश्य है- परस्पर टुता को मिटाकर समता का भाव स्थापित करना ।