
होली (Holi) होली के त्योहार को लेकर सबसे अधिक प्रचलित कहानी प्रहलाद और होलिका की है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी दिन से जुड़ी कामदेव और भगवान शिव की भी एक कहानी है। इसके अलावा पूतना की भी एक कहानी होली से जुड़ती है। राक्षसी ढुंढी की भी एक मशहूर कहानी होली के दिन से ही प्रचलित है। तो चलिए इन कहानियों को आपको बताते हैं।
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कामदेव के भस्म होने की कहानी
पौराणिक कथा के तारकासुर नाम का एक राक्षस था जिसके अत्याचारों से देवता परेशान थे। तारकासुर का अंत भगवान शिव और पार्वती की संतान ही कर सकती थी। पर, उस समय भगवान शिव तो अनंत तपस्या में लीन थे। उनकी तपस्या खत्म होने तक ऐसा संभव नहीं था। ऐसे में कामदेव ने भगवान शिव की तपस्या भंग की। तपस्या भंग होने से नाराज होकर शिव ने कामदेव को ही भस्म कर दिया। कामदेव की पत्नी रति ने अपने पति के लिए भगवान शिव से गुहार लगाई। रति की गुहार सुनकर शिव भगवान ने कामदेव को फिर से जीवित कर दिया। कहा जाता है कि ये फाल्गुन पूर्णिका का दिन था जिस दिन कामदेव जीवित हुए। इस खुशी में इस दिन को होली के रूप में मनाया गया और उसके बाद से हर साल इस मौके पर होली मनाते हैं। इसके बाद शिव के पुत्र भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर देवों को उसके अत्याचार से मुक्ति दिलवाई थी।
पुतना और होली की क्या है कहानी
भगवान कृष्ण (lord krishna) के मामा कंस (Kans) ने उन्हें मारने के लिए राक्षसी पूतना को भेजा था। कंस को यह संकेत मिल गया था कि यही बच्चा आगे चलकर उसकी हत्या कर सकता है। पूतना को स्तन में जो दूध था उसमें जहर था। कोशिश यही थी कि बालक कृष्ण जब यह दूध पीएंगे तो जहर पीने के कारण उनकी मौत हो जाएगी। लेकिन हुआ उल्टा क्योंकि भगवान को भला कौन मार सकता है। भगवान ने ऐसा किया कि पूरा दूध खींच लिया और पूतना की मौत हो गई। पौराणिक कथा के अनुसार यह दिन फाल्गुन पूर्णिमा का ही दिन था। ऐसे में व्रज में भगवान के बचने की खुशी में सबने एक-दूसरे को रंग लगाकर खुशियां मनाई और तब से यह दिन होली के रूप में फेमस हो गया।
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राक्षसी ढुंढी और होली की क्या है कहानी
कथा के अनुसार पृथु नाम के एक राजा के राज्य में ढुंढी नाम की राक्षसी थी। यह राक्षसी बच्चों को ही शिकार बनाती थी। ढुंढी को वरदान प्राप्त था कि उसे किसी अस्त्र, शस्त्र से नहीं मारा जा सकता था। राजा पृथु के राजपुरोहितों ने उपाय बताया जिससे उसे मार सकते थे। इसके अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा के ही दिन लकड़ियां एकत्रित कर उन्हें जलाया गया। इसके चारों तरफ बच्चों को डांस करना था ताकि उन्हें देखकर राक्षसी आए। बच्चों के शोर और नगाड़े के बीच राक्षसी आई और उसी चिता में जलकर खत्म हो गई। इसके बाद से सबने खुशी-खुशी एक-दूसरे को रंग लगाया और खुशियां मनाईं। तभी से यह दिन प्रचलित हो गया।