November 21, 2024

व्रत करने पर प्रायः निराहार या अल्पाहार करके रहा जाता है। व्रत के दिन भोजन न करके अथवा एक ही बार भोजन करने का क्या महत्व है? उपवास करने से लक्ष्य की तन्मयता तथा साध्य का सान्निध्य किस प्रकार मिलता है। इस व्रत के करने से आत्मशुद्धि तथा आध्यात्मिकता का मार्ग खुलता है। व्रतों के मर्म को समझने की शक्ति प्राप्त होती है।

कथा- एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में अपना सारा राज्य दान दे दिया। राजा ने जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान किया उसकी आकृति महर्षि विश्वामित्र से मिलती जुलती थी। दूसरे दिन महर्षि उनके दरबार में पहुंचे। सत्यवादी हरिश्चन्द्र ने अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा चलने लगे तब विश्वामित्र ने राजा से पाँच सौ सुवर्ण मुद्राएँ और माँगी। राजा कहा – ‘राज-कोष से ले लो।” पर विश्वामित्र ने कहा – “राजकोष को आप पहले ही दान कर चुके हैं। ” राजा ने अपनी भूल स्वीकार कर पत्नी तथा पुत्र बेचकर स्वर्ण मुद्राएँ जुटायी तो सही, पर वे पूरी न हो सकीं। मुद्राएँ पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को भी बेच दिया। राजा हरिश्चन्द्र जिसके पास बिके, वह जाति से डोम था। वह श्मशास का स्वामी होने के नाते, मृतकों के सम्बन्धियों से कर लेकर शव दाह की स्वीकृति देता था। उसने राजा हरिश्चन्द्र को इस काम पर तैनात कर दिय। वे अपना कर्त्तव्य समझकर उसका विधिवत पालन करने लगे।

राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ती। एकादशी का व्रत था। राजा हरिश्चन्द्र आधी रात के समय श्मशान भूमि में पहरे पर तैनात थे। एक युवक अपने पुत्र का दाह-संस्कार करने के लिए वहाँ आयी। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था। उसने अपनी आधी साड़ी फाड़ कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर मांगा। उस दीन अबला के पास कर कहाँ था? कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शव दाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी बिलबिलाकर रोने लगी। उस समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे। पानी बरसने लगा। बिजली चमकी। उसी बिजली के प्रकाश में राजा ने उस स्त्री को पहचान लिया।

राजा के पुत्र रोहिताश्व का देहांत सांप के काटने से हुआ था। पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर उनका विचलित होना स्वाभाविक था। महाराज ने सारा दिन उपवास रखा था। इस “देवी! दृश्य को देखकर उन्हें रोना आ गया। पर यह तो उनकी परीक्षा की घड़ी थी। उन्होंने साहसपूर्वक उस युवती से कहा, जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, था, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए इस कष्ट की घड़ी में अडिग न रहा गया तो मैं कर्त्तव्यच्युत होऊँगा। यद्यपि इस समय तुम्हारी अवस्था शोचनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। ” रानी ने यह सुनकर जैसे ही कर देने के लिए हाथ हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाया तो तत्काल प्रभु प्रकट होकर बोले – “महाराज! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित करके आचरण की सिद्धि का परिचय दिया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा धन्य है। तुम इतिहास में अमर रहोगे। ” राजा सत्य हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- “भगवन्! यदि सत्य ही आप मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा पर प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवनदान दीजिए। ” रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र जी ने उनका सारा राज्य भी सौंप दिया। यही इस एकादशी का महात्म्य है।

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