आचार्य शंकर द्वारा चलाए गए अद्वैत मत के प्रचारक रामानुज का जन्म वैशाख शुक्ला षष्ठी को हुआ था। रामानुज दयालु व सहनशील थे। उनमें लोगों के मन में धर्म की लगन जागृत करने का उत्साह था।
सन्त भाम्बि ने इन्हें गुरु मंत्र देकर कहा था- इस मंत्र को गुप्त रखना। पर रामानुज इसे स्वयं तक ही सीमित न रख सके। उन्होंने भरी सभा में ‘ओं नमो नारायणाय’ मंत्र जनता को सुनाया। इनके गुरु इनसे इस कृत्य से रुष्ट हो गए व कहने लगे- मेरी आज्ञा भंग करने के कारण तुम्हें घोर नरक सहना होगा। तो रामानुज ने विनम्र बनकर कहा- यदि आपके दिए मंत्र से हजारों व्यक्ति नरक के कष्ट से बच जाएं तो मैं नरक का दुःख भोगने को तैयार हूँ। इस पर गुरु का क्रोध जाता रहा तथा वे बड़े प्रसन्न हुए। एक बार वे कहीं जा रहे थे कि कुछ डाकुओं ने उन पर आक्रमण कर दिया तो आस-पास के हरिजनों ने उनकी रक्षा की। इनके प्रेम में मुग्ध हो तिरुनारायण पुर में एक मन्दिर की स्थापना की जिसका नाम तिरुवकुलत्तर (हरिजन) रखा। इसमें अछूतों को भी प्रवेश की आज्ञा है। आज के हिन्दू समाज में रामानुज की पवित्र याद को स्थाई रखने के लिए उनकी जयन्ती मनाई जाती है।