October 30, 2024

यह पर्व दो त्यौहारों का अनूठा समन्वय है। (१) रक्षा बन्धन (२) श्रावण-कर्म । इन दोनों का अलग-अलग वर्णन इस प्रकार

(१) रक्षा-बन्धन -श्रावण शुक्ला पूर्णिमा से दो दिन पूर्व गोबर पतला करके रसोई को लीपकर शुद्ध करके घर के दरवाजे पर गोबर की टिकिया को आटे से पोतकर हिरमच से सोना मांडना चाहिए। शरवी पूर्णिमा के दिन जब भद्रा न हो तब सोन को जिमाना चाहिए। चूरमा दाल तथा खीर की रसोई पकानी चाहिए। रोली, चावल से अर्चना करके भोग लगाना चाहिए। मोली की राखी रखनी चाहिए। इस दिन हनुमान तथा पितरों का पूर्ण आस्था से तर्पण करने के लिए जल, रोली, मोली, धूप, फूल, फल, चावल, नारियल आदि चढ़ावा चढ़ाना चाहिए। इसके बाद घर की सब मटियार औरतें राखी बांधें। बहन अपने भाइयों को राखी बांध तिलक करे, गोला दे। भाइयों को चाहिए कि वे बहन को प्रसन्न करने के लिए रुपया दें।

यदि बहन भाई के पास न हो तो राखी पत्रादि के माध्यम से पहले ही डाक से भेज देनी चाहिए जिससे समय पर मिल जाए। रक्षा बन्धन का ऐसा विधान मारवाड़ में प्रसिद्ध है इस दिन केवल बहनें ही भाइयों को राखी बांधती हैं, ऐसा आवश्यक नहीं है। त्यौहार वास्तविक आनन्द पाने के लिए धर्म-परायण होना जरूरी है। इस पर्व में दूसरों की रक्षा के धर्म-भाव को विशेष महत्व दिया गया है। जन साधारण चाहिए कि प्रातः कालीन कर्मों से निवृत्त होकर स्नान ध्यान करके उज्जवल तथा शुद्ध वस्त्र पहने। अथवा सूत के वस्त्र में चावल की छोटी-छोटी गांठें, केसर अथवा हल्दी से रंग में रंग लो। गाय के गोबर से घर लीपकर, चावलों के आटे का चौक पूरकर मिट्टी के छोटे से घड़े की स्थापना करो। पुरोहति बुलवाकर विधिपूर्वक कलश का पूजन करवाओ। पूजनोपरांत चावल वाली गांठों को पुरोहित यजमान की कलाई में बांधते हुए यह मंत्र पढें-

“येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः

तेनत्वामभिबघ्नामि रक्षे माचल-माचलः ।

रक्षा बन्धन का वैदिक स्वरूप यही है। इस दिन बहनें भाइयों सूत की राखी बांधकर अपनी जीवन रक्षा का दायित्व उन पर को सोंपती हैं। रक्षा-बन्धन की इस प्रथा की प्रसिद्ध कथा इस प्रकार है

रक्षाबंधन की कथा

एक बार दैत्यों तथा सुरों में युद्ध छिड़ गया और वह लगातार बारह वर्षों तक चलता रहा। असुरों ने देवताओं को पराजित करके उनके प्रतिनिधि इन्द्र को भी पराजित कर दिया । ऐसी दशा में इन्द्र भागे-भागे अपने गुरु वृहस्पति के चरणों में गिर कर निवेदन करने लगे, “गुरुवर! ऐसी दशा में परिस्थितियाँ कहती हैं कि मुझे यहीं प्राण देने होंगे। न तो मैं भाग ही सकता हूँ और न ही युद्धभूमि में टिक सकता हूँ। कोई उपाय बताइये। ” यह बात हो ही रही थी कि इन्द्राणी ने निवेदन किया- “प्राणनाथ!

आप भयभीत न होइये। मैं उपाय करती हूँ। ” दूसरे दिन पौ फटते ही इन्द्राणी ने श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर पर द्विजों से स्वस्तिवाचन करवा कर रक्षा का तन्तु लिया और इन्द्र की दाहिनी कलाई में बाँधकर युद्धभूमि में लड़ने के लिए भेज दिया। ‘रक्षा बन्धन’ के प्रभाव से दैत्य भाग खड़े हुए और इन्द्र की जान में जान आई।

बहन द्वारा भाई की कलाई में राखी बांधने की प्रथा का सूत्रपात यहीं से होता है।

इतिहास साक्षी है कि मुसलमान शासक भी रक्षा बन्धन की धर्मभावना पर न्यौछावर थे। जहांगीर ने एक राजपूत स्त्री का रक्षा सूत्र पाकर समाज को विशिष्ट आदर्श प्रदान किया है। इस सन्दर्भ में पन्ना की राखी विशेषतः उल्लेखनीय है। एक बार राजस्थान की दो रिसायतों में गंभीर कलह जारी थी। एक रियासत पर मुगलों ने आक्रमण कर दिया। अवसर पाकर दूसरी रियासत वाले राजपूत मुगलों का साथ देने के लिए सैन्य-सज्जा कर रहे थे। पन्ना भी इन्हीं मुगलों के घेरे में थी। उसने दूसरी रियासत के शासक को जो मुगलों की सहायतार्थ जा रहा था, राखी भेजी। राखी पाते ही उसने उलटे मुगलों पर आक्रमण कर दिया। मुगल पराजित हुए। रक्षा बन्धन के कच्चे धागे ने दोनों रियासतों के शासकों को पक्की मैत्री के सूत्र में बांध दिया।

वास्तव में अरुण रंग की इस राखी का वास्तविक अर्थ है- हे भाई! जब तक मेरी बलिष्ठ कलाई में रक्त की अन्तिम बूंद भी है तब तक मेरी आपातकालीन स्थिति में सुरक्षा का दायित्व तुझ पर है।

श्रावणी कर्म- कृषि प्रधान भारत का सांस्कृतिक इतिहास बताता है कि श्रावण पूर्णिमा आ जाने पर कृषक भावी फसल के लिए आशाएं संजोता है। क्षत्रिय दिग्विजय यात्रा से विरत होते हैं तथा वैश्य वाणिज्य व्यापार से आराम नाते हैं। साधु-सन्यासी लोग भी वर्षा के कारण वनस्थलियों का परित्याग करके बस्तियों के समीप आकर धर्मोपदेश में चौमासा व्यतीत करते हैं। इस प्रकार श्रद्धालु भक्त ज्ञान सुनकर अपने समय का सदुपयोग करते थे। ऋषि लोग वेद परायण करके अपनी तपस्या को सफलता की ओर ले जाते थे। इस प्रकार वेदपरायण के इस शुभारंभ को ‘उपाकर्म’ कहा जाता था। यह कर्म श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को आरम्भ होता था। इस प्रकार श्रावणी के पहले दिन अध्ययन का श्रीगणेश होता था।

अस्तु! श्रावणी कर्म का विशेष महत्व है। इसलिए ब्राह्मणों को इस दिन किसी सरोवर या सरिता के तौर पर जाकर शास्त्रों में कथित विधान से श्रावणी-कर्म करना चाहिए। पंचगव्य (गो-दुग्ध, गो-घृत, गो-दधि, गोबर तथा गोमूत्र) पान करके शरीर को शुद्ध करके हवन करना ‘उपाकर्म’ है। इसके उपरान्त जल के सामने भगवान सूर्य की प्रशस्ति करके अरुन्धती सहित सातों ऋषियों की अर्चना करके दही तथा सत्तू की आहुति देनी चाहिए। इसे ‘उत्सर्जन’ कहते हैं। इसी दिन यज्ञोपवीत के पूजन का विधान भी है। पुराना यज्ञोपवीत उतार कर नया धारण करना इस दिन की श्रेष्ठता है। इसी दिन इसीलिए उपनयन संस्कार करके विद्यार्थियों को गुरुकुलों में वेदों का अध्ययन एवं ज्ञानार्जन के लिए भेजा जाता था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *