चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘कामदा एकादशी’ कहते हैं। इस व्रत की कथा को सुनकर हमें ज्ञात होता है कि कभी-कभी छोटी-छोटी भूलों की बहुत बड़ी सजा मिलती है। ऐसे में यदि हम साहस व धैर्य से काम लें तो उन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
कथा – नागलोक में पुण्डरीक नामक एक राजा राज्य करता था। उसका दरबार किन्नरों व गंधर्वों से भरा रहता था। वहाँ किन्नर व गन्धर्वो का गायन होता रहता था। एक दिन गन्धर्व ललित दरबार में गान कर रहा था कि उसे अचानक गाते-गाते अपनी पत्नी की याद आ गई। उसकी स्वर लहरी व ताल विकृत होने लगे। इस त्रुटि को ललित के एक प्रतिद्वन्द्वी कर्कट ने ताड़ लिया। उसने उसकी त्रुटि राजा को बतला दी। इस पर राजा पुण्डरीक को उस पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने उसी अवस्था में उसे राक्षस होने का शाप दे दिया। राजा के शाप से शापित वह राक्षस होकर विचरने लगा। उसकी पत्नी ललिता भी उसी के साथ-साथ चलने लगी। अपने पति को इस हालत में देखकर वह बड़ी दुःखी होती। एक दिन घूमते-घूमते ललिता विन्ध्य पर्वत पर रहने वाले ऋष्यमूक ऋषि के पास गई और अपने शापित पति के उद्धार का उपाय पूछने लगी। ऋषि ने ‘कामदा एकादशी’ के व्रत का विधान बताकर उसे व्रत करने की सलाह दी। ललिता ने श्रद्धापूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से ललित शाप से मुक्त होकर अपने गन्धर्व स्वरूप को प्राप्त हो गया।