इस व्रत को स्त्रियाँ सूर्य नारायण के निमित्त करती हैं। इसलिए इसे ‘सौर सप्तमी’ भी कहते हैं। स्त्रियों को चाहिये कि वे षष्ठी को मात्र एक बार भोजन करके विधिपूर्वक उसी दिन से सूर्य नारायण का पूजन भी करें। सप्तमी को प्रातःकाल नदी या तालाब पर जाकर सिर पर दीप धारण करके सूर्य की स्तुति करो। स्नान के बाद सूर्य भगवान की अष्टदली प्रतिमा बनाकर मध्य में शिव तथा पार्वती की स्थापना करके विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए। पूजन के पश्चात् ताम्बे के बर्तन में चावल भरकर ब्राह्मण को दान देना चाहिये। इसके बाद शिव-पार्वती तथा सूर्य का विसर्जन करके घर आओ। ब्राह्मण को भोजन कराके स्वयं भोजन करना चाहिए।
कथा – एक बार महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, “भगवान! कृपा करके यह बतलाइये कि कलयुग में स्त्री किस व्रत के प्रभाव से अच्छे पुत्र वाली हो सकती है?” तब श्रीकृष्ण ने कहा – “प्राचीनकाल में इन्दुमति नाम की एक वेश्या हो गई है। उसने एक बार वशिष्ठ जी के पास जाकर कहा –
‘मुनिराज! मैं आज तक कोई धार्मिक कार्य नहीं कर सकी हूँ। मुझे हर समय अपनी मुक्ति की चिन्ता लगी रहती है। कृपया मुझे बताइये कि मेरा मोक्ष किस प्रकार हो सकेगा।’ वेश्या की प्रार्थना सुनकर वशिष्ठजी ने बताया कि स्त्रियों को मुक्ति, सौभाग्य और सौन्दर्य देने वाला अचला सप्तमी से बढ़कर कोई दूसरा व्रत नहीं है। इसलिए तुम इस व्रत को माघ शुक्ला सप्तमी के दिन करो। इससे तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण होगा।”
वशिष्ठ जी की शिक्षा से इन्दुमति ने यह व्रत विधिपूर्वक किया और इसके प्रभाव से शरीर छोड़ने के बाद स्वर्गलोक में गई। वहाँ वह समस्त अप्सराओं की नायिका हुई। स्त्रियों के लिए इस व्रत का विशेष महात्म्य है।