इस दिन पुण्यसलिला गंगा का जन्म दिन मनाया जाता है। गंगा को भूतल पर लाने की योजना महाराजा सगर ने बनाई थी। महाराजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने मिलकर अपने श्रम को सफल बनाया था।
इस दिन गंगा स्नान का विशेष माहात्म्य है। यदि यह न हो सके तो किसी भी नदी में तिलोदक देने का विधान है। ज्येष्ठ शुक्ला दशमी सोमवार तथा हस्त नक्षत्र सब पापों का हर्ता माना गया है। इसी दिन धरती पर गंगावतरण हुआ था। इस दिन गंगा स्नान के पश्चात् धूप, दीप, चंदन, पुष्प, दूध आदि से गंगा का विधिवत् पूजन करना चाहिए। जलचरों को आटे की गोलियां चने आदि डालने चाहिए। ब्राह्मणों तथा गौओं को यथा- सामर्थ्य खाद्यान्न खिलाने चाहिए। इस दिन गंगा-पूजन तथा गंगा स्नान से व्यक्ति सारे पापों से मुक्त हो जाता है। गंगा जल समस्त रोगों का नाशक है। वह सड़ता तक नहीं ।
कथा – एक बार महाराज सगर ने बड़ा व्यापक यज्ञ किया। उस यज्ञ की रक्षा का भार उनके पौत्र अंशुमान ने संभाला। पर इन्द्र ने सगर के यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया। यह यज्ञ के लिए विघ्न था। परिणामतः अंशुमान ने सगर की साठ हजार प्रजा लेकर अश्व को खोजना शुरू कर दिया। सारा भूमंडल छान मारा पर अश्व न मिला। फिर पाताल लोक में खोजने के लिए पृथ्वी को खोदा गया। खोदने पर क्या देखते हैं कि साक्षात् भगवान महर्षि कपिल के रूप में तपस्या कर रहे हैं। उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा था। प्रजा उन्हें देखकर चोर-चोर शब्द करने लगी।
महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्यों ही महर्षि ने अपने आग्नेय नेत्र खोले, प्रजा भस्म हो गई।इन मृत लोगों के उद्धार के लिए महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ ने तप किया। तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने वर मांगने को कहा तो भगीरथ ने ‘गंगा’ की मांग की। इस पर ब्रह्मा ने कहा, “राजन्! तुम गंगा का पृथ्वी पर अवतरण तो चाहते हो? परन्तु क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी? मेरी मान्यता है कि गंगा के वेग को संभालने की शक्ति मात्र भगवान शंकर में है। इसलिए उचित है कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए। ” महाराज भगीरथ ने वैसा ही किया। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमण्डलु से छोड़ा। भगवान शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएँ बांध लीं। और यहाँ तक कि गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ न मिल सका।
अब महाराज भगीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की अराधना में घोर तप शुरू किया। तब कहीं भगवान शिव ने गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिव जी की जटाओं से छूटकर गंगा जी हिमालय की घाटियों में कलकल निनाद करके मैदान की ओर मुड़ी।इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ के कष्टमयी साधना की गाथा कहेगी। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, मुक्ति भी देती है। इसी कारण भारत तथा विदेशों तक में गंगा की महिमा गाई जाती है।