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श्री सत्यनारायण व्रत कथा

यह व्रत किसी भी दिन किया जा सकता है। हमारे देश में पूर्णिमा के दिन इस व्रत को करने का विशेष माहात्म्य है। इसके अतिरिक्त संक्रान्ति, अमावस्या अथवा एकादशी को भी यह व्रत करना श्रेष्ठ माना जाता है।

श्री सत्यनारायण के पूजन के व्रती को प्रातः काल स्नानादि करके श्री सूर्यनारायण को हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्व नमस्कार करना चाहिए। चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य से उनकी पूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात् चन्द्रमा, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु के अन्तर्यामी श्री नारायणदेव को जानकर उन सबको प्रणाम करना चाहिए। इस समय भगवान शिव तथा मन्नारायण का भी भक्तिभाव से पूजन करना चाहिए। प्रातःकाल इस व्रत का संकल्प लेने के बाद दिन भर निराहार रहना चाहिए। दिन भर चलते-फिरते, उठते-बैठते विष्णु भगवान का गुणकथन तथा ध्यान करना चाहिए। केले के खम्भों तथा आम के पत्तों से बंदनवार बनाकर मंडप को खूब अच्छी तरह सजाना चाहिए। मण्डप में चौकी पर सुन्दर आसन बनाकर भगवान की प्रतिमा अथवा चित्र प्रतिष्ठित करना चाहिए। प्रतिमा के पास सालिग्राम भी रखना चाहिए। कलश के पास गणेश जी तथा नवग्रहों की स्थापना करनी चाहिए। इस प्रकार मंडप का पूर्ण निर्माण करके षोड्डशोपचार से श्रीसत्यनारायणदेव जी का पूजन करके ध्यानपूर्वक विद्वान तथा श्रद्धालु पंडित के श्रीमुख से कथा सुननी चाहिए।

कथा– एक बार नैमिषारण्य में तपस्या करते हुए शौनकादि ऋषियों ने तपोमान सूत जी से प्रश्न किया भगवान ! ऐसा कौन-सा व्रत है, जिसके करने से मनुष्य को मनोवांछित फल मिलता है। ” सूत जी ने उत्तर दिया, “एक बार नारद जी ने भी श्री विष्णु भगवान जी से ऐसा ही प्रश्न किया था। तब विष्णु जी ने उन्हें जो व्रत बताया था मैं उसी व्रत के बारे में आपसे कहता है। कृपया ध्यानपूर्वक सुनिए –

काशीपुरी में शतानन्द नामक निर्धन तथा दरिद्र ब्राह्मण रहता था। भूख-प्यास से व्याकुल होकर दर-दर माँगता फिरता था। एक दिन उसकी इस दशा से व्यथित होकर विष्णु भगवान ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में प्रकट होकर शतानन्द को सत्यनारायण व्रत का विधान बताया और अन्तर्धान हो गए।

शतानन्द अपने मन में श्री सत्यनारायण का व्रत करने का निश्चय करके घर लौट आया। वह चिंतामग्न रहा। उसे रात भर नींद न आयी। सवेरा होते ही वह सत्यनारायण व्रत का संकल्प करके भिक्षाटन के लिए चल दिया। उस दिन उसे थोड़े से परिश्रम के पश्चात् ही बहुत अधिक धन-धान्य भिक्षा में मिल गया। उसने सायंकाल होने पर श्रद्धापूर्वक भगवान सत्यनारायण जी का विधिपूर्वक पूजन करके व्रत किया। भगवान की अनुकम्पा से वह कुछ ही दिनों में धनवान हो गया। वह जीवनपर्यन्त प्रतिमास श्री सत्यनारायण का पूजन करता रहा। मृत्यु के पश्चात् वह ‘विष्णु-लोक’ में चला गया।

सूत जी पुनः बोले- – एक दिन शतानन्द अपने बन्धु-बाँधवों सहित ध्यान में मग्न होकर श्री सत्यनारायण जी की कथा सुन रहा था। वहाँ भूख प्यास से व्याकुल एक लकड़हारा आ पहुँचा। वह भूख-प्यास भूलकर कथा सुनने बैठ गया। कथा समाप्त होने पर उसने प्रसाद खा कर जल ग्रहण किया। उसने शतानन्द से इस व्रत का विधान तथा प्रयोजन भी पूछ लिया। शतानन्द ने अपनी सारी दशा उससे कह डाली। लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। वह मन ही मन सत्यनारायण भगवान के पूजन का निश्चय करके लकड़ी बेचने के लिए चल पड़ा।

दैवयोग से उस दिन लकड़हारे को लकड़ियों का दुगना दाम मिला। उसने उस पैसों से केले, दूध, दही, शक्कर आदि पूजन की सांरी सामग्री खरीद ली। घर आकर उसने अपने कुटुम्बियों तथा पड़ोसियों सहित विधिपूर्वक सत्यनारायण भगवान का पूजन करके कथा सुनी। नारायण की कृपा से वह थोड़े ही दिनों में सम्पन्न हो गया। उसने जीवन भर इस लोक में सारे सुखों का भोग किया। मरणोपरांत सत्य-लोक में जा पहुँचा।

सूत जी ने फिर कहा- प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा हुआ है। वे पति-पत्नी दोनों बड़े धर्मनिष्ठ थे। एक समय राजा-रानी भद्र-शीला नदी के तट पर श्री सत्यनारायण जी की कथा सुन रहे थे कि एक बनिया वहाँ आ पहुँचा। उसने रत्नों से भरी नौका को तट पर लगाया और पूजा में सम्मिलित हो गया। वहाँ का चमत्कार देखकर उसने राजा से पूजन के विधि-विधान के बारे में पूछा। राजा ने उसे सविस्तार बता दिया। राजा के श्रीमुख से व्रत का विधान सुन कर तथा प्रसाद पाकर बनिया अपने घर की ओर चल दिया।

घर पहुँचते ही बनिए ने व्रत की सारी गाथा अपनी पत्नी को कह सुनाई। उसने वहां संकल्प किया कि संतान होने पर श्री सत्यनारायण जी का व्रत अवश्य किया जाएगा। उसकी स्त्री लीलावती परम साध्वी तथा धर्मशीला थी। सत्यनारायण की परम कृपा से वह कुछ ही दिनों में गर्भवती हो गई। उसने एक कन्या को जन्म दिया। कन्या का नाम कलावती रखा गया। वह चन्द्रमा की कलाओं के समान नित्यप्रति बढ़ने लगी। एक दिन अवसर पाकर लीलावती ने पतिदेव से श्री सत्यनारायण की कथा करने के लिए कहा। वह बोला- यह व्रत तथा कथा कन्या के विवाह के समय करूंगा। विवाह योग्य होते ही उसने उसका विवाह कंचनपुर नामक नगर के एक समृद्ध वणिक् के सुन्दर पुत्र से कर दिया। बनिया यहाँ भी व्रत करने से चूक गया। फलतः श्री सत्यनारायण जी रूठ गए।

कालान्तर में बनिया अपने दामाद सहित समुद्र के किनारे रत्नसार पुर में व्यापार करने लगा। एक दिन वहाँ के राजा चन्द्रकेतु के खजाने में चोरी हो गयी। राजा के सिपाहियों ने चोरों का पीछा किया। चोरों ने बचने का कोई उपाय न देखकर उन्होंने राजकोष से चुराए हुए धन को एक स्थान पर फैंक दिया और स्वयं भागने में सफल हो गये। जहाँ उन्होंने धन फेंका, वहीं बनिए क डेरा था। सिपाही चोरों की खोज करते-करते वहाँ पहुँच गये। उन्होंने बनियों को चोर समझकर पकड़ लिया।राजा ने बिना किसी सुनवाई के उन्हें काल-कोठरी में बन्द करवा दिया। उनका सारा धन भी राजकोष में जमा कर लिया।

उधर श्री सत्यनारायण के कोप से लीलावती तथा कलावती को भी बड़े बुरे दिन देखने पड़े। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। वे भी भिक्षाटन पर जीवित रहने लगीं। भूखी-प्यासी कलावती एक मन्दिर में चली गई। वहाँ श्री एक दिन सत्यनारायण जी की कथा हो रही थी। उसने वहाँ कथा सुनी। प्रसाद लेकर जब घर पहुँची तब रात अधिक हो चुकी थी। माता ने उसके देरी से आने का कारण पूछा। उसने सारा वृत्तांत कह सुनाया। उसकी बात सुनकर लीलावती को अपने पति की भूल की याद हो आयी। उसने तत्काल श्री सत्यनारायण के व्रत करने का निश्चय किया। उसने अपने बन्धु-बांधवों को बुलाकर श्रद्धापूर्वक कथा सुनी तथा विनम्र भाव से आर्त स्वर में प्रार्थना की कि उसके पति ने संकल्प करके जो व्रत नहीं लिया उसी से आप अप्रसन्न हुए थे। अब उस अपराध को क्षमा करें। लीलावती को प्रार्थना से श्री सत्यदेव प्रसन्न हो गए।

उसी रात्रि में श्री सत्यनारायण ने राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा – ‘प्रातः काल होते ही दोनों बनियों को जेल से छोड़ कर उनका लिया हुआ धन दुगना करके लौटा दे, नहीं तो तेरा सारा राज्य नष्ट जाएगा।’ इतना कहना था कि राजा की नींद टूट गई। तब तक नारायण अन्तर्धान हो चुके थे। राजा को रात-भर नींद न आई। सवेरा होते ही उसने उन वणिकों को मुक्त करके दरबार में प्रवेश होने का आदेश दिया। ऐसी खबर पाकर दोनों काँप गए। सोच रहे थे अब जाने क्या होगा? वे डर के मारे काँप रहे थे। राजा ने उन्हें आश्वासन दिया कि घबराओ नहीं। तुमने अपने कर्मों का फल भोगना था सो भोग लिया।

इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। ” राजा ने उनके बाल कटवाए। सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहना कर उनका लिया हुआ धन दुगना करके लौटा दिया। वहाँ से उन्हें सम्मानपूर्वक विदाई मिली।

दोनों बनिए प्रसन्न होकर नौकाओं को धन से भरकर घर की ओर चल दिए। श्री सत्यनारायण ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। वे बूढ़े ब्राह्मण की वेशभूषा में उन बनियों के सामने प्रस्तुत होकर पूछने लगे- “तुम्हारी नौका में क्या भरा पड़ा है महाराज?” बनियों ने हँसी करते हुए उत्तर दिया- “कुछ नहीं, घास-पात है महाराज। दण्डी स्वामी ‘तथास्तु’ कहकर आगे चल दिए। दण्डी स्वामी के चले जाने के बाद बनियों ने देखा- नौका हल्की होकर जल से ऊपर उठ आयी है। वे यह देख कर हक्के-बक्के रह गए कि सचमुच नौका में लताएं तथा कूड़ा-कचरा भरा पड़ा है। बूढ़ा बनिया तो यह सब देखकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। दामाद बुद्धिमान् था। उसने कहा – “ -“ऐस घबराने से काम न चलेगा। यह सब दण्डी स्वामी की ही शरारत है। हमने उनसे जो झूठ कहा उसी का फल हमें मिला है। दामाद की बात सुनकर बनिया दण्डी स्वामी के पास पहुँच कर उनके चरणों में गिर पड़ा। बार-बार उनसे क्षमा माँगने लगा। उन्हें गिड़गिड़ाते देखकर करुणाकर भगवान द्रवित हो गए। उन्हें इच्छित वरदान दिया और अन्तर्धान हो गए। बनियों ने नौका को पूर्ववत धन से भरा पाया। उन्होंने वहीं पर श्री सत्यनारायण जी का पूजन किया । कथा कही। तब घर को चले।

अपने नगर के समीप पहुँच कर बनिए ने लीलावती को अपने आने की सूचना भिजवाई। लीलावती उस समय श्री सत्यनारायण जी का पूजन कर रही थी। उसने कलावती से कहा-‘ – “तुम्हारे पति तथा पिता आ गए हैं। मैं उनके स्वागत के लिए चलती हूँ। तुम भी प्रसाद लेकर शीघ्र ही नदी तट पर पहुँच जाना। कलावती प्रसन्नता के कारण इतनी विमुग्ध हो गई कि प्रसाद ग्रहण करना ही भूल गई। तुरन्त नदी की ओर दौड़ी। जब नदी के तट पर पहुँची, तो उसके पति सहित नौका जल में डूब गई। यह देखकर बनिया छाती पीट-पीट कर विलाप करने लगा। लीलावती की भी बड़ी कारुणिक दशा हो गई। कलावती पति की पादुकाएं लेकर सती होने को तैयार हो गई। तत्काल आकाशवाणी हुई – “हे वणिक्! तेरी कन्या सत्यनारायण के प्रसाद का निरादर करके पति से मिलने के लिए आतुर होकर दौड़ी आई है। यदि वह प्रसाद लेकर फिर आए उसका पति उसे मिल जाएगा। कलावती ने वैसा ही किया। प्रसाद लेकर जब वह वहाँ पहुँची तो उसने नौका सहित पति को देखा। इस प्रकार दामाद को देखकर सब प्रसन्न हो गए। वे घर पहुँच गए। इस वणिक-परिवार ने जीवन पर्यन्त श्री सत्यनारायण जी का व्रत किया तथा कथा कही ।

इसके पश्चात् सूत जी ने बताया- एक बार तुङ्गध्वज राजा शिकार खेलने के लिए वन में गया हुआ था। वहाँ उसने बड़ के पेड़ के नीचे ग्वालों को इकट्ठा होकर श्री सत्यनारायण जी की कथा करते देखा। राजा ने न तो श्री सत्यनारायण जी को नमस्कार किया और न ही उन ग्वालों के दिए हुए प्रसाद को ही खाया । राजा महलों में चला गया। वहाँ पहुँचते ही उसे मालूम हुआ कि उसके पुत्र-पौत्र तथा सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई है। उसे तत्काल वन की घटना स्मरण हो गई। वह पुनः वन में गया। वहाँ ग्वालों को इकट्ठा किया। उनसे नए सिरे से कथा करवायी और प्रसाद ग्रहण किया। वह घर लौटा तो उसका सारा राज्य तथा राजवंश ज्यों का त्यों विद्यमान मिला। तब से वह राजा भी जीवन पर्यन्त श्री सत्यनारायण जी का व्रत करता रहा।

इस प्रकार श्री सत्यनारायण जी का व्रत बड़ा मंगलकारी है। इसे करने वाला सुखमय जीवन व्यतीत करता है।

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