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सन्तान सप्तमी व्रत ( भाद्रपद शुक्ल सप्तमी)

यह व्रत पुत्र प्राप्ति, पुत्र रक्षा तथा पुत्र अभ्युदय के लिए किया जाता है। इस व्रत का विधान दोपहर तक रहता है। दोपहर को चौक पूर कर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, सुपारी तथा नारियल आदि से शिव-पार्वती की पूजा की जाती है। इस दिन नैवेद्य-भोग के लिए खीर-पूड़ी तथा गुड़ के पुए रखे जाते हैं। रक्षा बन्धन के लिए शिवजी को डोरा भी अर्पित किया जाता है। इस डोरे को शिवजी से वरदान के रूप में लेकर, धारण करके कहानी सुनी जाती है। इस दिन जाम्बवती के साथ श्यामसुन्दर तथा उनके बच्चे साम्ब की पूजा भी की जाती है। माताएँ पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान मांगती हैं। इस व्रत को ‘मुक्ताभरण’ भी कहते हैं।

कथा – एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि मेरे जन्म से पहले किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आये थे। मेरे माता-पिता देवकी तथा वासुदेव ने भक्ति-पूर्वक पूजा की तो ऋषि ने आदेश दिया, “हे देवकी! कंस ने तुम्हारे कई पुत्रों को पैदा होते ही मारकर तुम्हें पुत्र शोक दिया। इस दुःख से मुक्त होने के लिए तुम ‘सन्तान सप्तमी’ व्रत करो। राजा नहुष की रानी चन्द्रमुखी ने भी यह व्रत किया था। उसके भी पुत्र नहीं मरे। यह व्रत तुम्हें भी पुत्र-शोक से मुक्त करेगा। ” देवकी ने पूछा, “राजन्! मुझे व्रत का पूरा विधि-विधान बताओ।

लोमश ऋषि बोले, “नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था। ( वहाँ विष्णुदत्त नामक ब्राह्मण भी रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। चन्द्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं। वहाँ और भी स्त्रियाँ स्नान कर रही थीं। उन्होंने वहाँ मंडल बनाकर पार्वती सहित शिव की प्रतिमा बनाकर विधि-पूर्वक पूजन किया। उन स्त्रियों से चन्द्रमुखी तथा रूपवती ने पूजन का नाम तथा विधि पूछी। स्त्रियों ने बताया कि हमने पार्वती सहित शिव की पूजा की है। भगवान् शिव का डोरा बाँधकर हमने संकल्प किया है कि जब तक जीवित रहेंगी, तब तक यह व्रत करती रहेंगी। यह ‘मुक्ताभरण व्रत’ सुख तथा संतान देने वाला है।

स्त्रियों की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवनपर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प करके शिवजी के नाम का डोरा बाँध लिया। किन्तु घर पहुँचने पर वे संकल्प को भूल गईं। फलतः मृत्यु के पश्चात् रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुई। कालांतर में पशु-योनि छोड़कर मनुष्य योनि में आयीं । चन्द्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी। रूपवती ने एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा रखा गया। भूषणा का विवाह राज-पुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों की बड़ी प्रीति थी। व्रत भूलने के कारण रानी इस जन्म में बाँझ हुई। कहीं प्रौढ़ावस्था में जाकर उसको एक गूँगा तथा बहरा पुत्र जन्मा तो सही, पर नौ साल का होकर मर गया। भूषणा ने व्रत को याद रखा था। इसलिए उसके गर्भ से सुन्दर तथा स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म लिया ।

रानी ईश्वरी के पुत्र – शोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। उसे देखते ही रानी के मन में डाह पैदा हुई। उसने भूषणा को विदा करके उसके पुत्रों को भोजन के लिए बुलाया और भोजन में विष मिला दिया। परन्तु भूषणा के व्रत प्रभाव से उनका बाल भी बांका न हुआ। इससे रानी को और भी अधिक क्रोध आया। उसने अपने नौकरों को आज्ञा दी कि भूषणा के पुत्रों को पूजा के बहाने यमुना के किनारे ले जाकर गहरे जल में ढकेल दो।

भूषणा के बालक व्रत के प्रभाव से इस बार भी बच गये। परिणामतः रानी ने जल्लादों को बुलाकर आज्ञा दी कि ब्राह्मण-बालकों को वध-स्थल पर लेजाकर मार डालो। जल्लादों का बेहद प्रयास करने पर भी बालक मर न सके। यह समाचार सुनकर रानी को आश्चर्य हुआ। उसने भूषणा को बुलाकर पूछा कि किस कारण उसके बच्चे नहीं मर पाए हैं?”

तब भूषणा बोली, “आपको क्या पूर्व जन्म की बात स्मरण नहीं है?” भूषणा बोली, “क्या? मुझे तो कुछ याद नहीं है?” तब उसने कहा सुनो– “पूर्व जन्म में तुम राजा नहुष की रानी थी और मैं तुम्हारी सखी। हम दोनों ने एक बार भगवान शिव का डोरा बांधकर संकल्प किया था कि जीवन पर्यन्त सन्तान सप्तमी व्रत को किया करेंगीं। किन्तु दुर्भाग्यवश हम भूल गईं और व्रत की अवहेलना होने के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेती हुई अब फिर इस मनुष्य जन्म को प्राप्त हुई हैं। अब मुझे उस व्रत की याद हो आई थी तो मैंने व्रत किया; उसी के प्रभाव से मेरे पुत्रों को आप चाह कर भी न मरवा सकीं।

यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक यह सन्तान सुख देने वाला मुक्ताभरण व्रत रखा। तब व्रत के प्रभाव से रानी पुनः गर्भवती हुई और एक सुन्दर बालक उत्पन्न हुआ। इसी समय से पुत्र प्राप्ति और सन्तान की रक्षा के निमित्त इस व्रत का अत्यधिक प्रचलन हुआ है।

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