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कार्तिक स्नान (कार्तिक पूर्णिमा)

धर्म-कर्म की साधना के लिए सदैव स्नान करने की आवश्यकता है। आरोग्य प्राप्ति तथा उसकी रक्षा के लिए भी प्रतिदिन स्नान करना लाभप्रद है। फिर भी माघ, वैशाख तथा कार्तिक में नित्य प्रति के स्नान का विशेष माहात्म्य है। ‘मदन पारिजात’ के अनुसार कार्तिक के महीने में जितेन्द्रिय रहकर प्रतिदिन स्नान करके एक ही समय का भोजन करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। यह व्रत शरद पूर्णिमा से आरम्भ करके कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को पूरा किया जाता है। इसमें स्नान के लिए घर के बर्तनों की अपेक्षा कुआं, तालाब तथा नदी आदि पवित्र माने गये हैं। कुरुक्षेत्र, अयोध्या तथा काशी आदि तीर्थों पर स्नान करने का और भी अधिक महत्व है। स्नान करने के लिए तालाब या नदी में प्रवेश से पूर्व हाथ, पांव तथा सब अंग अच्छी तरह धो लेने चाहिये। आचमन करने के बाद चोटी बाँधकर, जल-कुश से संकल्प करने का विधान विशेष है। महर्षि अंगिरा के मतानुसार स्नान में कुशा, दान में संकल्प का जल और जप में संख्या न होना अधिक फलदायी है।

धर्म-प्राण भारत के बड़े-बड़े नगरों से लेकर छोटी से छोटी बस्ती में भी अनेक स्त्री-पुरुष तड़के उठकर कार्तिक स्नान करके भगवान का भजन करके व्रत रखते हैं। सायंकाल के समय देवमन्दिरों, चौराहों, गलियों, पीपल के वृक्षों और तुलसी के पौधों के पास दीपक जलाते हैं। लम्बे बांस में लालटेन बांधकर किसी ऊँचे स्थान में ‘आकाशी’ प्रकाशित करते हैं। इन व्रतों में स्त्रियाँ बड़े मनोयोग से भाग लेती हैं।

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