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हरतालिका तीज (भाद्रपद शुक्ल तृतीया)

भाद्रपद की शुक्ला तृतीया को हस्त नक्षत्र होता है। इस दिन गौरी-शंकर का पूजन किया जाता है। इस व्रत को कुमारी तथा सौभाग्यवती स्त्रियाँ करती हैं।

व्रत का विधान – इस दिन स्त्रियों को निराहार रहना होता है। संध्या समय स्नान करके, शुद्ध, उज्जवल वस्त्र धारण करके पार्वती तथा शिव की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजन की सम्पूर्ण सामग्री जुटाकर पूजा करनी चाहिए। सुहाग की पिटारी में सुहाग की सारी वस्तुएँ रख कर पार्वती जी को चढ़ाने का विधान इस व्रत का प्रमुख लक्ष्य है। शिव जी को धोती तथा अंगोछा चढ़ाया जाता है यह सुहाग सामग्री किसी ब्राह्मणी तथा धोती और अंगोछा किसी ब्राह्मण को देकर तेरह प्रकार के मीठे व्यंजन सजाकर रुपयों सहित सास को देकर उनका चरण स्पर्श करना चाहिए। इस प्रकार पार्वती तथा शिव का पूजन अराधना करके कथा सुननी चाहिए। इस प्रकार व्रत करने से स्त्रियों को सौभाग्य मिलता है। जो स्त्रियाँ इस व्रत को रखकर भोजन कर लेती हैं वे जन्म-जन्मान्तर विधवा तथा सात जन्म तक बाँझ होने का अपार कष्ट झेलती हैं। व्रत न करने वाली अथवा करके छोड़ देने वाली स्त्री भी नरक अधिकारिणी बनती है। पूजनोपरांत स्वर्ण अथवा रजत के बर्तनों में ब्राह्मणों को मधुर भोजन कराकर ही इस व्रत का पारण करना चाहिए।

कथा – इस व्रत के महात्म्य की कथा भगवान शंकर ने पार्वती को उनके पूर्वजन्म का स्मरण करवाने के उद्देश्य से इस प्रकार कही थी –

हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर गंगा के तट पर तुमने अपनी बालावस्था में बारह वर्ष तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इस अवधि में तुम केवल वायु सेवन ही करती थीं। इतनी ही अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर जीवन के रथ को आगे बढ़ाया। माघ की विकराल शीतलता में तुमने निरन्तर जल में प्रवेश करके तप किया। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना कुछ खाए-पीए समय काटा। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता को बड़ा क्लेश होता था। एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारद जी तुम्हारे पिता जी के पास पधारे। पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके आने का कारण पूछा। नारद जी ने तब कहा, “गिरिराज! मैं भगवान विष्णु का भेजा हुआ यहाँ आया हूँ। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस संदर्भ में मैं आपकी राय चाहता हूँ। ” गिरिराज महामुनि ” जी की बात सुनकर गद्गद् हो उठे और बोले, “श्रीमन् ! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण चाहते हैं तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती । साक्षात् ब्रह्म हैं। हर पिता अपनी पुत्री को पति के घर सुख-सम्पदा से युक्त ही देखना चाहता है। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जा कर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।” नारद जी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णु जी के पास गए और तुमसे ब्याह के निश्चित होने का समाचार उन्हें कह सुनाया।

जब इस विवाह सम्बन्ध की बात तुम्हारे कान में पड़ी तब तुम्हारे दुःख का ठिकाना न रहा। तुम्हारी यह मानसिक दशा एक सखी पर प्रकट हुई। उसके पूछने पर तुमने बताया कि मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिव शंकर का वरण किया है किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णु जी से निश्चित कर दिया। विचित्र धर्म-संकट में हूँ। अब क्या करूँ? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है।

तुम्हारी सखी सयानी थी। दूरदर्शिता थी। उसने कहा, ‘आली! प्राण त्यागने का मैं यहाँ कोई भी कारण नहीं समझती। धैर्य से काम लेना चाहिए। भारतीय नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे हृदय से पति रूप में एक बार स्वीकार लिया है, जीवनपर्यन्त उसी से निर्वाह करे और सच्ची आस्था एवं एकनिष्ठा से विफल होने में भगवान भी असहाय है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूँ जो साधना-स्थली भी हो और तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएँ ।

तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। वे सोचने लगे- “लड़की मटियार (नवयुवती) है। जाने कहाँ चली गई। मैं विष्णु जी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूँ। यदि भगवान विष्णु बारात को लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा।” गिरिराज ने ऐसा सोचकर तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।

इधर तुम्हारी खोज होती रही और तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर घनघोर गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगीं। भाद्रपद शुक्ला तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात्रि भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं और तुम्हारी कष्टसाध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलायमान हो गया। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरन्त तुम्हारे पास पहुँचा और वर मांगने का आदेश दिया। अपनी तपस्या को फलवती जानकर तुमने कहा, “मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ। यदि सचमुच आप मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर भक्वत्सल होकर यहाँ पधारे हैं तो मुझे अपने अर्धांगिनी के रूप में अपना लीजिए।” मैं तब ‘तथास्तु’ कह कर कैलाश-शिखर पर लौट आया।

प्रातः होते तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारण किया। तत्क्षण अन्य पर्वतों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते खोजते वहाँ पहुँचे और तुम्हारी इस प्रकार की कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा। गिरिराज बिलख-बिलख कर रो रहे थे। तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा, “पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश भाग कठोर से कठोर तपस्या में बिताया। मेरी इस तपस्या का लक्ष्य है मात्र महादेव जी को पति के रूप में वरण करना। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूँ। आप क्योंकि विष्णु जी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे इसीलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। मैं अब आपके साथ घर इसी शर्त पर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णु जी से न करके महादेव जी से करें।”

गिरिराज मान गये। तुम्हें घर ले आये। कुछ समय के पश्चात् शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह के बन्धन में बांध दिया। भाद्रपद की शुक्ला तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इस व्रत का ऐसा ही महत्व हैं कि मैं इस व्रत को करने वाली कुमारियों को मनोवांछित फल देता हूँ।

अतएव सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक ललना को यह व्रत पूर्ण निष्ठा एवं आस्था से करना चाहिए। इस व्रत को ‘हरतालिका’ इसलिए कहते हैं कि पार्वती की सखी उसे पिता प्रदेश से हर कर घनघोर जंगल में ले गई थी ‘हरत’ अर्थात् हरण करना और ‘आलिका’ अर्थात् सखी, सहेली।

इसे ‘बूढ़ी तीज’ भी कहते हैं। इस दिन सासें बहुओं को सुहागी का सिंधारा देती हैं। बहुएँ पाँव छूकर सास को रुपये देती हैं।

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