यह पर्व गंगा-पूजन के साथ मनाया जाता है। इस दिन गंगा स्नान करके जल गंगा जी किया जाता है। यह गंगा व्याधिनाशक तथा सुख सम्पत्तिदायक है। इस व्रत का विशेष सम्बन्ध ‘अत्रि गंगा’ है। महर्षि अत्रि तथा उनकी पत्नी अनुसूया के के ‘अत्रि गंगा’ का अवतरण हुआ था।
कथा- त्रेतायुग में अनाचार बढ़ जाने अनेक धर्मात्मा सिद्ध पुरुष त्याग कर बसे। वर्ष तक जीव-जन्तु प्राणीमात्र जल की एक-एक बूँद के लिए तरसने लगा। जन-जीवन में फैले इस दुःख को महर्षि अत्रि न देख सके। उन्होंने लोकहित की भावना से निराहार रह कर कठोर तपस्या शुरू कर दी। उनकी पत्नी भी बड़ी साध्वी थी। उसने भी वैसा ही कठोर तप करना शुरू किया। एक दिन जब महर्षि अत्रि की समाधि खुली तो उन्होंने पत्नी अनुसूया से पीने के लिए जल मांगा।
आश्रम के पास एक नदी थी। अनुसूया वहाँ से जल लेने गई। पर उसे वहाँ जल न मिला। वह कई स्थानों पर घूमी पर उसे कहीं जल न मिल सका। तत्काल पेड़ों के समूह से एक युवती निकल कर अनुसूया की ओर बढ़ी। उसके पूछने पर अनुसूया ने बताया कि “वह प्यासे पति के लिए जल की खोज में निकली है पर जल कहीं मिला ही नहीं। तुम यदि कोई जलाशय बता दो तो आजीवन आभार मानूँगी।” इस पर युवती ने कहा कि कई दिनों से तो पानी बरसा ही नहीं मिलेगा कहाँ? अनुसूया यह सुन कर उत्तेजना भरे शब्दों में बोली – “मिलेगा कैसे नहीं, यहीं मिलेगा। मैं साध्वी हूँ। मैंने पूर्णमनोयोग से अपने पति की सेवा की है। यदि मैं इस सेवा-धर्म की कसौटी पर खरी उतरी हूँ तो मेरा तप यहीं पतित पावनी गंगा की धारा प्रवाहित करके दिखाएगा। उस युवती ने कहा- “देवी! मैं तुम्हारे पतिव्रत से प्रसन्न हूँ। तुम्हारी साधना से मैं भी कम प्रसन्न नहीं हूँ। इससे जगत का बड़ा मंगल होगा। “
अनुसूया ने क्षमा याचना करते हुए युवती का परिचय पूछा। युवती ने बताया- “मैं ही गंगा तुम्हारे पति परमेश्वर प्यासे हैं मैं तुम्हारे सुदर्शनों के लिए यहाँ पधारी हूँ। तुम्हारा लक्ष्य पूरा हो गया है। अपने गाँव के नीचे के टीले को कुरेदो। वहाँ पानी ही पानी है। पानी भर कर ले जाओ और पति देव को पिलाओ “
अनुसूया ने गंगा मैया से निवेदन किया कि जब तक वह न लौटे तब तक कृपया यहाँ रहें अथवा उसके साथ चल कर, उसके पति देव को भी दर्शन देकर कृतार्थ करें। गंगा ने वहाँ ठहरने के मूल्य में उसकी पति-सेवा का एक वर्ष का फल दान में मांग लिया। अनुसूया ने एक वर्ष के पुण्य-फल को अर्पित करने वचन देकर पति देव से भी आज्ञा लेने का निवेदन किया। अनुसूया के जाने के बाद गंगा मैया वहीं पेड़ों की छाया में विश्राम करने लगीं। अनुसूया को जल-सहित लौटा देखकर महर्षि ने पूछा- “जल कहाँ से लायी हो? इधर तो कुछ दिनों से वर्षा ही। नहीं हुई?” अनुसूया ने सारी घटना का वर्णन कर दिया। महर्षि अत्रि भी गंगा के दर्शन के लिए चल दिए। गंगा मैया के सामने पहुँच कर दम्पत्ति ने प्रणाम करके निवेदन किया कि यह गंगा की धारा कभी न सूखे। सदैव बहती रहे। गंगा ने कहा – “महर्षि! यह मेरे अधिकार में नहीं है। इसके लिए आपको महादेव जी की आराधना करनी होगी। ” गंगा के कहने पर, पति आज्ञा पाकर अनुसूया ने अपनी पति-सेवा के एक वर्ष का पुण्य फल गंगा को अर्पित कर दिया। उन्होंने वहीं भगवान शिव की आराधना की। औढरदानी शिव प्रकट हुए। गंगा का प्रवाह स्थायी हो गया। अनावृष्टि का सकंट दूर हो गया।
महर्षि ने आश्रम के पास भगवान शंकर की स्थापना करके उनको ‘व्रजेश्वर नाथ’ नाम दिया। उनके पास बहने वाली गंगा ‘अत्रि-गंगा’ कहलायी। इसलिए इस दिन इस व्रत तथा पूजन का विधान है।