इसे ‘चम्पाछठ’ भी कहते हैं। इस दिन विष्णु जी ने माया-मोह में ग्रस्त नारद जी का उद्धार किया था। सांसारिक मायामोह से छुटकारा पाने की दृष्टि से इस व्रत का विधान है। इस दिन स्नानादि करके विधिपूर्वक भगवान विष्णु की आराधना करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा तथा वस्त्र दान करने का विशेष महात्म्य है। इस दिन ऊन के वस्त्र दान करने चाहिये ।
कथा – एक बार महर्षि नारद ने महादेव के सामने अपने त्याग तथा तप सहित संयम का गर्वपूर्ण वर्णन किया। जिस पर महादेव जी ने उन्हें आज्ञा दी कि ऐसा विष्णु जी से सामने मत कहना पर नारद तो नारद थे ही। वे अपनी वाणी पर संयम न रख सके। विष्णु जी के पास पहुँचे और अपनी त्याग तपस्या का वर्णन करने लगे। विष्णु जी ने नारद के अभिमान को समझ गये। भक्तों में अभिमान का आना उनके पतन का लक्षण है। ऐसा जानकर उन्होंने नारद जी को सचेत करने का उपक्रम किया।
जब नारद जी विष्णु जी के पास से लौट रहे थे तब उन्हें एक बड़ा समृद्ध राज्य मार्ग में देखने को मिला। वहाँ का राजा देवता के समान था। नारद उसकी राजकुमारी के सौन्दर्य पर आसक्त हो गए। राजकन्या का स्वयंवर होने वाला था। उनके मन में उसी से ब्याह करने की लालसा जगी। नारद तो दाड़ी वाले संन्यासी ठहरे। ऐसे व्यक्ति से राजकुमारी ब्याह क्यों करेगी?’ यह सोच कर वे विष्णु जी के पास गए और सारा वर्णन करके उनका रूप मांगा। नारद के संयम का बांध टूट चुका था। विष्णु जी ने उन्हें रूप का वरदान दे कर भेजा दिया। स्वयंवर में जब राजकन्या ने किसी अन्य व्यक्ति के गले में जयमाला डाल दी तो नारद जी को बड़ा क्रोध आया। लोगों के कहने पर जब नारद जी ने अपना प्रतिबिम्ब देखा तो उन्होंने अपना मुंह बंदर का पाया। क्रुद्ध नारद ने विष्णु जी को शाप दिया कि जिस रूप को देकर आपने मुझे दुखी किया है आपको आपदा पड़ने पर यही रूप तुम्हारी सहायता करेगा? परिणामतः रामावतार हनुमान जी का अवतरण हुआ। उक्त स्वयंबर मार्गशीर्ष शुक्ला षष्ठी को हुआ था।