अरुन्धती महर्षि कर्दम की पुत्री तथा वशिष्ठ जी की पत्नी थीं। सप्त ऋषियों में वशिष्ठ जी के साथ अरुन्धती जी को भी विशेष स्थान प्राप्त है, इसलिए इन्हीं के नाम से इस व्रत का प्रचलन हुआ है।
इस व्रत के करने से स्त्रियों के चरित्र में उत्थान होता है। उन्हें कुछ आदर्श-प्रेरणाएँ मिलती हैं। इस व्रत से बाल-वैधव्य का दोष दूर हो जाता है। उन्हें अटल सौभाग्य की प्राप्ति होती है। यह व्रत चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को आरम्भ तथा चैत्र शुक्ला तृतीया को समाप्त होता है।
1 किसी भी नदी में स्नान करने के पश्चात् इस व्रत को करने का विशेष विधान है। द्वितीया को नये धानों के ढेर पर अरुन्धती, वशिष्ठ तथा ध्रुव की सोने की मूर्तियों की स्थापना करके पहले गणेश तथा बाद में तीनों मूर्तियों का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए। इस व्रत का पारण तृतीया को गौरी-शंकर के पूजन के पश्चात् करना चाहिए। तीनों स्वर्ण-मूर्तियाँ किसी अधिकारी ब्राह्मण को जल का संकल्प लेकर दान करनी चाहिए। तृतीया के दिन गौरी-शंकर पूजन के समय ‘ओम् नव्यः शिवाय’ तथा गायत्री मंत्र जप से हवन करके ब्राह्मणों को मीठा भोजन कराने का विशेष माहात्म्य है।
महर्षि वशिष्ठ की आज्ञा से सर्वप्रथम अरुन्धती ने ही इस व्रत को किया था। जन्म-जन्मातर के वैधव्य दोष से बचने के लिए स्त्रियों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।
कथा – प्राचीन काल में एक सब शास्त्रों का ज्ञाता, वेदों का पंडित तथा पूर्ण धर्मात्मा ब्राह्माण हुआ। दैवयोग से उसकी सुन्दर कन्या बाल्यावस्था में ही विधवा हो गई। बेचारी कन्या माता-पिता की सेवा करती हुई वैधव्य धर्म का पालन करके जीवन व्यतीत करने लगी। वह एक दिन यमुना जी के तट पर स्नान करने के बाद तप कर रही थी। दैवयोग से पार्वती सहित भगवान शंकर विचरण करते हुए वहाँ पर आ गए। कन्या को घोर तपस्या करते देख कर पार्वती ने भगवान जी से पूछा, “यह घोर तपस्या क्यों कर रही है? इसके विधवा हो जाने का क्या कारण है?” भगवान शंकर ने बताया- -‘पूर्व जन्म में यह कन्या ब्राह्मणी थी। इसका विवाह हो गया। पति परदेश चला गया। कुछ समय पश्चात् इसने एक अन्य पुरुष से प्रेम कर लिया जिसके परिणामस्वरूप इसे इस जन्म में बाल-वैधव्य का कष्ट कहना पड़ा। शास्त्र का कथन है कि जो पुरुष पर-स्त्रीगमन करता है वह अंधा होता है और जो स्त्री पर पुरुषगामिनी होती है वह बाल-विधवा हो जाती है। यह सुनकर पार्वती ने इस पाप से मुक्ति का साधन पूछा, जिसके करने से पुनः इस पाप के फलों को भोगना न पड़े। उत्तर में भगवान शंकर ने बताया, “जो स्त्री सावधि अरुन्धती जी का व्रत करती है। वह इस असह्य संकट से बच जाती है। यदि यह स्त्री भी अरुन्धती के पावन चरित्र का स्मरण करके अपना शरीर त्यागकर अगले जन्म में सदाचार का पालन करे तो इस कष्ट से छुटकारा पा सकती है अन्यथा इसे जन्म-जन्मान्तर में यह कष्ट झेलना पड़ेगा। ” ऐसा सुनकर पार्वती जी ने उस स्त्री को सब कुछ कह समझाया। पार्वती जी के आदेश से उस स्त्री ने चिरकाल तक अरुन्धती का स्मरण करके शरीर त्याग कर दूसरा जन्म सुखी गृहिणी के रूप में व्यतीत किया।