Site icon क्या होता है

आखिर कहा विलुप्त हो गए वो गांव के ब्याह

दोस्तों आज हम बात करेंगे की आखिर कहा विलुप्त हो गए वो गांव के ब्याह, कहा गए वो दिन जो गांव में पहले शादी ब्याह में देखने को मिलता था। आखिर क्यों विलुप्त होते जा रहे है ये रीति रिवाज तो चलिए शुरू करते है।

गांव ब्याह में टेंट हाउस और कैटरिंग कैसे होती थी

पहले गाँव मे न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग था, थी तो बस सामाजिकता। गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से चारपाई आ जाती थी, हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही इकट्ठा हो जाता था और गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं।
औरते ही मिलकर दुलहिन तैयार कर देती थीं और हर रसम का गीत गारी वगैरह भी खुद ही गा डालती थी।
तब डीजे अनिल & डीजे सुनील जैसी चीज नही होती थी और न ही कोई आरकेस्ट्रा वाले फूहड़ गाने।
गांव के सभी चौधरी टाइप के लोग पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे।
हंसी ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी।
शादी ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था। गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती। सच कहु तो उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।
खाना परसने के लिए गाँव के लौंडों का गैंग समय पे इज्जत सम्हाल लेते थे।
कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते जिसमे एक कॉमन गाना बजता था-मैं सेहरा बांधके आऊंगा मेरा वादा है और दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम न समझते।
दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा रहता, समय समय पर बार झारते रहता था कंघी से और समय समय पर काजर-पाउडर भी पोत देता था ताकि दुलहा सुन्दर लगे।
फिर दुवारा का चार होता फिर शुरू होती पण्डित जी की महाभारत जो रातभर चलती।
फिर कोहबर होता, ये वो रसम है जिसमे दुलहा दुलहिन को अकेले में दुइ मिनट बतियाने के लिए दिया जाता लेकिन इत्ते कम समय मे कोई क्या खाक बात कर पाता।
सबेरे खीर में जमके गारी गाई जाती और यही वो रसम है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते कि ना, हम नही खाएंगे खीर। फिर उनको मनाने कन्यापक्ष के सब जगलर टाइप के लोग आते।
अक्सर दुलहा की सेटिंग अपने चाचा या दादा से पहले ही सेट रहती थी और उसी अनुसार आधा घंटा कि पौन घंटा रिसियाने का क्रम चलता और उसी से दूल्हे के छोटे भाई सहबाला की भी भौकाल टाइट रहती लगे हाथ वो भी कुछ न कुछ और लहा लेता…
फिर एक जय घोष के साथ खीर से एक चावल का कण दूल्हे के होठों तक पहुंच जाता और एक विजयी मुस्कान के साथ वर और वधू पक्ष इसका आनंद लेते…
उसके बाद अचर धरउवा जिसमे दूल्हे का साक्षात्कार वधू पक्ष की महिलाओं से करवाया जाता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार प्राप्त होते जो नगद और श्रृंगार की वस्तुओं के रूप में होते.. इस प्रकिया में कुछ अनुभवी महिलाओं द्वारा काजल और पाउडर लगे दूल्हे का कौशल परिक्षण भी किया जाता और उसकी समीक्षा परिचर्चा विवाह बाद आहूत होती थी… और लड़कियां दूल्हा के जूता चुराती और १०१ रुपये में मान जाती।
फिर गिने चुने बुजुर्गों द्वारा माड़ौ (विवाह के कर्मकांड हेतु निर्मित अस्थायी छप्पर) हिलाने की प्रक्रिया होती वहां हम लोगों के बचपने का सबसे महत्वपूर्ण आनंद उसमें लगे लकड़ी के शुग्गों (तोता) को उखाड़ कर प्राप्त होता था और विदाई के समय नगद नारायण कड़ी कड़ी १० रूपये की नोट जो कहीं २० रूपये तक होती थी….
वो स्वार्गिक अनुभूति होती कि कह नहीं सकते हालांकि विवाह में प्राप्त नगद नारायण माता जी द्वारा आठ आने से बदल दिया जाता था…
आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है जो आनंद विवाह का हम लोगों ने प्राप्त किया है…..

लोग बदलत जा रहे है परंपरा भी बदलत चले जा रहे है आगे चलकर यह सब देखन को मिलेगा की नही उ त विधाता जाने लेकिन जवन मजा उ समय मे रहा उ अब धीरे धीरे बिलुप्त हो रहा हैं।

Exit mobile version