जिस मास में सूर्य-संक्रान्ति नहीं होती, उसे ‘अधिमास’ कहते हैं। जिसमें दो संक्रान्तियाँ पड़ती हैं, वह ‘क्षयमास’ होता है। अधिमास ३२ मास १६ दिन तथा चार घड़ी के अन्तर से आता है। क्षयमास १४१ वर्ष के बाद और तत्पश्चात् १९ वर्ष पश्चात् पुनः आता है। लोक व्यवहार में अधिमास ‘अधिक मास’, ‘मलमास’ तथा ‘पुरुषोत्तममास’ के नाम से जाना जाता है।
अधिमास में फल प्राप्ति की कामना से किए जाने वाले प्रायः सभी कार्य वर्जित हैं। इसमें निष्काम भाव से ही कार्यों में रत होना चाहिए चैत्रादि महीनों में जो महीना अधिमास महीना हो, उसके सम्पूर्ण साठ दिनों में से प्रथम मास की शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ करके द्वितीय मास की अमावस्या तक तीन दिन पर्यन्त अधिमास के निमित्त उपवास तथा यथाशक्ति दान-पुण्य करना चाहिए। यह व्रत मनुष्यों के सारे पापों का नाशक है। इस महीने में दान-पुण्य करने का फल अक्षय होता है। यदि दान-पुण्य न किया जा सके तो ब्राह्मणों तथा सन्तों की सेवा सर्वोत्तम मानी गई है। दान-पुण्य में व्यय करने से धन क्षीण नहीं होता। उत्तरोत्तर बढ़ता जरूर है। जिस प्रकार छोटे से वट बीज से विशाल वृक्ष पैदा हो जाता है ठीक वैसा ही मलमास में किया गया दान अनन्त फलदायक सिद्ध होता है।
इस व्रत के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण ने कहा कि इसका फलदाता तथा भोक्ता सब कुछ मैं ही हूँ। प्राचीनकाल में राजा नहुष ने इन्द्रपद प्राप्ति के मद से इन्द्राणी पर आसक्त होकर, उसकी आज्ञानुसार ऋषियों के कन्धों पर उठाई हुई पालकी पर सवार होकर उसके महल की ओर प्रस्थान किया। नहुष कामातुरता के कारण अन्धा हो रहा था। वह ऋषियों से बार-बार सर्प-सर्प (चलो चलो) कह रहा था। इस धृष्टता के कारण महर्षि अगस्त्य के शाप से वह स्वयं सर्प हो गया। अन्त में उसे अपने कृत्य पर बड़ा पश्चाताप हुआ। महर्षि वशिष्ठ की आज्ञा से उसने प्रदोष व्रत किया और सर्पयोनि से मुक्त हुआ। व्रती को चाहिए कि प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु स्वरूप सहस्त्रांशु (सूर्य) का विधिपूर्वक पूजन करे। घी, गुड़ और अन्न के दान के साथ-साथ गुड़, घी तथा गेहूँ के आटे के बने पुओं को कांसे के बरतन में रखकर विष्णु रूपी सहस्रांशु के निमित्त दान करे। ऐसा करने से धन-धान्य तथा पौत्रादि बढ़ते हैं।